Description
मुझे किसने और क्यों पैदा किया?दुनिया की हर चीज़ पैदा करने वाले के अस्तित्व का प्रमाण प्रस्तुत करती है
अन्य अनुवाद 37
किसने आकाशों, धरती और उनके बीच मौजूद अनगिनत बड़ी-बड़ी सृष्टियों को पैदा किया है?
आकाश एवं धरती की यह सटीक एवं सुदृढ़ व्यवस्था किसने स्थापित की?
किसने इन्सान को पैदा किया, उसे सुनने एवं देखने की शक्ति दी, बुद्धि-विवेक दिया और ज्ञान एवं तथ्यों को समझने में सक्षम बनाया?
आपके तथा अन्य जीवित प्राणियों के शरीर की प्रणालियों की इस सूक्ष्म कारीगरी की व्याख्या आप कैसे करेंगे? इनको इतने शानदार अंदाज़ में किसने पैदा किया?
यह महान ब्रह्माण्ड अपने सूक्ष्म नियतों के साथ इतने लंबे समय से कैसे व्यवस्थित एवं स्थिर रूप में चल रहा है?
इस संसार को नियंत्रित करने वाली प्रणालियों (जीवन और मृत्यु, प्राणियों का प्रजनन, दिन और रात, ऋतुओं का परिवर्तन, आदि) की स्थापना किसने की?
क्या इस संसार ने खुद अपनी रचना कर ली है? यह अनस्तित्व से अस्तित्व में आ गया है? यह सब कुछ संयोग मात्र से बन गया है?
इन्सान ऐसी चीज़ों के अस्तित्व पर विश्वास क्यों रखता है, जिन्हें वह देख नहीं सकता? जैसे : (एहसास, विवेक, आत्मा, भावनाएँ और प्रेम)। क्या इसलिए नहीं कि वह इनके प्रभावों को देखता है? ऐसे में भला वह इस विशाल संसार के स्रष्टा के अस्तित्व का इनकार कैसे कर सकता है, जबकि वह उसकी सृष्टियों, शिल्पकारी और दया के प्रभावों को अपनी आँखों से देख रहा है?
कोई भी विवेकी व्यक्ति से यदि यह कहा जाए कि यह भवन किसी के बनाए बिना अपने आप बन गया है, तो वह मानने को तैयार नहीं होगा। ऐसे में, वह कुछ लोगों के इस दावे को कैसे मान सकता है कि यह विशाल संसार किसी रचयिता के बिना ही सामने आ गया है। कोई समझदार व्यक्ति कैसे मान सकता है कि यह सूक्ष्म व्यस्था एक संयोग मात्र से स्थापित हो गई है।
अल्लाह तआला ने कहा है :(أَمۡ خُلِقُواْ مِنۡ غَيۡرِ شَيۡءٍ أَمۡ هُمُ ٱلۡخَٰلِقُونَ، أَمۡ خَلَقُواْ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَۚ بَل لَّا يُوقِنُونَ). (क्या वे बिना किसी के पैदा किए पैदा हो गए हैं या वे स्वयं ही अपने स्रष्टा हैं? या उन्होंने आकाशों और धरती को पैदा किया है? वास्तव में, वे विश्वास ही नहीं रखते।)[52 : 32].
इस संसार का एक पालनहार एवं रचयिता है। उसके बहुत-से महान नाम और गुण हैं, जो उसकी संपूर्णता को दर्शाते हैं। अल-ख़ालिक़ (रचयिता), अल-राज़िक़ (रोज़ी देने वाला), अल-करीम (उदार) एवं अल्लाह आदि उसके नाम हैं। अल्लाह उसका सबसे प्रसिद्ध नाम है। अल्लाह का अर्थ है, ऐसी हस्ती जो अकेले इबादत की हक़दार हो और उसका कोई साझी न हो।
उच्च एवं महान अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन में कहा है [1] :﴿قُلۡ هُوَ ٱللَّهُ أَحَدٌ (आप कह दीजिए (ऐ रसूल!) : वह अल्लाह एक है।* ٱللَّهُ ٱلصَّمَدُ अल्लाह पूर्ण संप्रभु और बेनियाज़ है।*لَمۡ یَلِدۡ وَلَمۡ یُولَدۡ न उसकी कोई संतान है और न वह किसी की संतान है।*وَلَمۡ یَكُن لَّهُۥ كُفُوًا أَحَدُۢ﴾ और न उसके बराबर कोई है।)[112 : 1-4]
एक अन्य स्थान में अल्लाह तआला ने कहा है :﴿اللَّهُ لا إِلَهَ إِلَّا هُوَ الْحَيُّ الْقَيُّومُ لا تَأْخُذُهُ سِنَةٌ وَلا نَوْمٌ لَهُ مَا فِي السَّمَوَاتِ وَمَا فِي الأَرْضِ مَنْ ذَا الَّذِي يَشْفَعُ عِنْدَهُ إِلَّا بِإِذْنِهِ يَعْلَمُ مَا بَيْنَ أَيْدِيهِمْ وَمَا خَلْفَهُمْ وَلا يُحِيطُونَ بِشَيْءٍ مِنْ عِلْمِهِ إِلَّا بِمَا شَاءَ وَسِعَ كُرْسِيُّهُ السَّمَوَاتِ وَالأَرْضَ وَلا يَئُودُهُ حِفْظُهُمَا وَهُوَ الْعَلِيُّ الْعَظِيمُ﴾ (अल्लाह (वह है कि) उसके सिवा कोई सत्य पूज्य नहीं। (वह) जीवित है, स्वयं से स्थिर रहने वाला और हर चीज़ को सँभालने (क़ायम रखने) वाला है। न उसे कुछ ऊँघ पकड़ती है और न नींद। उसी का है जो कुछ आकाशों में और जो कुछ धरती में है। कौन है, जो उसके पास उसकी अनुमति के बिना अनुशंसा (सिफ़ारिश) करे? वह जानता है जो कुछ उनके सामने और जो कुछ उनके पीछे है। और वे उसके ज्ञान में से किसी चीज़ को (अपने ज्ञान से) नहीं घेर सकते, परंतु जितना वह चाहे। उसकी कुर्सी आकाशों और धरती को व्याप्त है और उन दोनों की रक्षा उसके लिए भारी नहीं है। और वही सबसे ऊँचा, सबसे महान है।)[2 : 255]
उसी रब ने धरती की रचना की और उसे सृष्टियों के रहने योग्य बनाया। उसी ने आकाशों एवं उनके अंदर मौजूद बड़ी-बड़ी सृष्टियों को पैदा किया। उसी ने सूरज, चाँद, दिन एवं रात की यह सूक्ष्म व्यवस्था स्थापित की, जो उसकी महानता को दर्शाती है।
उसी ने हमारे लिए हवा पैदा की, जिसके बिना हम जीवित नहीं रह सकते। वही हमारे लिए बारिश बरसाता है। उसी ने हमारे लिए समुद्र एवं नदियाँ बनाईं। वही हमें उस समय भोजन एवं सुरक्षा प्रदान करता था, जब हम अपनी माँ के पेट में थे और हमारे पास कोई शक्ति नहीं थी। वही हमारी रगों में खून जारी रखता है। और वही जन्म से मृत्यु तक हमारे ह्रदयों को निरंतर धड़कन प्रदान करता है।
अल्लाह तआला ने फ़रमाया है :﴿وَاللَّهُ أَخْرَجَكُمْ مِنْ بُطُونِ أُمَّهَاتِكُمْ لَا تَعْلَمُونَ شَيْئًا وَجَعَلَ لَكُمُ السَّمْعَ وَالْأَبْصَارَ وَالْأَفْئِدَةَ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُونَ﴾ (और अल्लाह ने तुम्हें तुम्हारी माताओं के पेटों से इस हाल में निकाला कि तुम कुछ न जानते थे। और उसने तुम्हारे लिए कान और आँख और दिल बनाए, ताकि तुम शुक्रिया अदा करो।)(16 : 78)
हमारे सृष्टिकर्ता ने हमें ऐसी अक़्लें (विवेक) दीं, जो उसकी महानता को महसूस कर सकें और ऐसा स्वभाव प्रदान किया, जो उसकी संपूर्णता को प्रमाणित करता है और बताता है कि उसके अंदर किसी कमी का पाया जाना संभव नहीं है।
इबादत केवल अल्लाह ही की होनी चाहिए। क्योंकि वही संपूर्ण है और एकमात्र इबादत का हक़दार है। उसके सिवा किसी और की इबादत उचित नहीं है। क्योंकि उसके सिवा कोई संपूर्ण एवं परिपूर्ण नहीं है। सबको मौत आनी है और फ़ना हो जाना है।
इन्सान, बुत, पेड़ या जानवर का पूज्य पालनहार होना असंभव है।
किसी समझदार व्यक्ति के लिए उचित नहीं है कि वह संपूर्ण हस्ती के अतिरिक्त किसी और की इबादत करे। ऐसे में अपनी ही जैसी या अपने से कमतर किसी अपूर्ण सृष्टि की इबादत भला कैसे उचित हो सकती है?
पालनहार किसी औरत के पेट में भ्रून बनकर रह नहीं सकता और बच्चों की तरह पैदा नहीं हो सकता।
पालनहार ही ने सारी सृष्टियों की रचना की है और सारी सृष्टियाँ उसके मातहत तथा उसके अधीन हैं। अतः कोई इन्सान उसे नुक़सान नहीं पहुँचा सकता। उसे सूली पर चढ़ाना, यातना देना और अपमानित करना किसी के लिए संभव नहीं है।
पालनहार को मौत नहीं आ सकती।
पालनहार न भूलता है, न सोता है और खाना खाता है। वह महान है। उसकी पत्नी या संतान नहीं हो सकती। क्योंकि सृष्टिकर्ता अपने हर गुण में महान है। ऐसा नहीं हो सकता कि उसे किसी चीज़ की ज़रूरत हो या उसके अंदर कोई कमी हो। धार्मिक पुस्तकों के ऐसे तमाम उद्धरण, जो सृष्टिकर्ता की महानता के विपरीत हैं और जिनकी निसबत नबियों की ओर की जाती है, वो सारे के सारे विकृत हैं। वो उस विशुद्ध वह्य का अंग नहीं हैं, जो मूसा अलैहिस्सलाम एवं ईसा अलैहिस्सलाम आदि अल्लाह के नबीगण लाए थे।
अल्लाह तआला ने कहा है :يَا أَيُّهَا النَّاسُ ضُرِبَ مَثَلٌ فَاسْتَمِعُوا لَهُ إِنَّ الَّذِينَ تَدْعُونَ مِنْ دُونِ اللَّهِ لَنْ يَخْلُقُوا ذُبَابًا وَلَوِ اجْتَمَعُوا لَهُ وَإِنْ يَسْلُبْهُمُ الذُّبَابُ شَيْئًا لَا يَسْتَنْقِذُوهُ مِنْهُ ضَعُفَ الطَّالِبُ وَالْمَطْلُوبُ (73) (ऐ लोगो! एक उदाहरण दिया गया है। इसे ध्यान से सुनो। निःसंदेह वे लोग जिन्हें तुम अल्लाह के अतिरिक्त पुकारते हो, कभी एक मक्खी भी पैदा नहीं कर सकते, यद्यपि वे इसके लिए इकट्ठे हो जाएँ। और यदि मक्खी उनसे कोई चीज़ छीन ले, वे उसे उससे छुड़ा नहीं पाएँगे। कमज़ोर है माँगने वाला और वह भी जिससे माँगा गया।مَا قَدَرُوا اللَّهَ حَقَّ قَدْرِهِ إِنَّ اللَّهَ لَقَوِيٌّ عَزِيزٌ (74) उन्होंने अल्लाह का वैसे आदर नहीं किया, जैसे उसका आदर करना चाहिए! निःसंदेह अल्लाह अत्यंत शक्तिशाली, सब पर प्रभुत्वशाली है।)[22 : 73, 74]
क्या यह बात समझ में आती है कि अल्लाह तआला ने इन सारी सृष्टियों को बिना किसी उद्देश्य के बनाया है? इन्हें व्यर्थ पैदा किया है? जबकि वह हिकमत वाला और सब कुछ जानने वाला है!
क्या यह बात समझ में आती है कि जिसने हमें इतनी सटीकता एवं निपुणता के साथ पैदा किया और आकाशों एवं धरती की सारी चीज़ों को हमारे अधीन कर दिया, वह हमें बिना किसी उद्देश्य के पैदा करे या उन महत्वपूर्ण सवालों का जवाब न दे, जो हमें उलझाए रखते हैं? जैसे - हम यहाँ क्यों आए हैं? मौत के बाद क्या होगा? हमारी रचना का उद्देश्य क्या है?
सच्चाई यह है कि अल्लाह तआला ने रसूल भेजे, ताकि हम अस्तित्व में आने का उद्देश्य जान सकें और पता चला सकें कि अल्लाह हमसे क्या चाहता है?
अल्लाह ने रसूल भेजे, ताकि वो हमें बताएँ कि केवल अल्लाह ही इबादत का हक़दार है, वो हमें अल्लाह की इबादत का तरीक़ा सिखाएँ, उसके आदेश एवं निषेध पहुँचाएँ और ऐसे नैतिक मूल्य सिखाएँ कि यदि हम उनका पालन करते हैं, तो हमारा जीवन भलाइयों एवं बरकतों से भर जाएगा।
अल्लाह ने बहुत सारे रसूल भेजे। जैसे नूह, इबराहीम, मूसा और ईसा। अल्लाह ने इन सब को ऐसी निशानियाँ एवं चमत्कार प्रदान किए, जो उनके सच्चे नबी और अल्लाह के भेजे हुए रसूल होने को प्रमाणित करते हैं।
इस सिलसिले की अंतिम कड़ी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हैं, जिनपर अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन उतारा।
रसूलों ने हमें स्पष्ट तौर पर बताया कि हमारा यह जीवन एक परीक्षा है और असल जीवन मौत के बाद का जीवन है।
वहाँ एकमात्र अल्लाह की इबादत करने वालों और सभी रसूलों पर विश्वास रखने वाले मोमिनों के लिए जन्नत है, तथा अल्लाह के साथ अन्य चीज़ों की इबादत करने या अल्लाह के किसी भी रसूल का इनकार करने वालों के लिए जहन्नम है।
अल्लाह तआला ने कहा है :
يَابَنِي آدَمَ إِمَّا يَأْتِيَنَّكُمْ رُسُلٌ مِنْكُمْ يَقُصُّونَ عَلَيْكُمْ آيَاتِي فَمَنِ اتَّقَى وَأَصْلَحَ فَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُونَ (35) (ऐ आदम की संतान! जब तुम्हारे पास तुम्हीं में से रसूल आ जायें, जो तुम्हें मेरी आयतें सुना रहे हों, तो जो डरेगा और अपना सुधार कर लेगा, उसके लिए कोई डर नहीं होगा और न वे उदासीन होंगे।وَالَّذِينَ كَذَّبُوا بِآيَاتِنَا وَاسْتَكْبَرُوا عَنْهَا أُولَئِكَ أَصْحَابُ النَّارِ هُمْ فِيهَا خَالِدُونَ (36) और जो हमारी आयतें झुठलायेंगे और उनसे घमण्ड करेंगे वही लोग आग (जहन्नम) वाले हैं। वे उसमें हमेशा रहने वाले हैं।)[7 : 35, 36]
एक अन्य स्थान में उसने कहा है :﴿ أَفَحَسِبْتُمْ أَنَّمَا خَلَقْنَاكُمْ عَبَثًا وَأَنَّكُمْ إِلَيْنَا لَا تُرْجَعُونَ ﴾ [क्या तुमने समझ रखा है कि हमने तुम्हें व्यर्थ ही पैदा किया है और तुम हमारी ओर फिर नहीं लाए जाओगे?][23 : 115]
क़ुरआन सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह की वाणी है, जिसे उसने अपने अंतिम रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर उतारा था। क़ुरआन दरअसल अंतिम रसूल मुसहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सच्चे नबी होने को प्रमाणित करने वाला सबसे बड़ा चमत्कार है। क्योंकि उसके सारे विधि-विधान उचित तथा उसकी प्रदान की हुई सारी सूचनाएँ सच्ची हैं। अल्लाह ने क़ुरआन को झुठलाने वालों को इसके समान एक सूरा ही प्रस्तुत करने की चुनौती दे रखी है, लेकिन उसकी शैली इतनी सुंदर और उसके शब्द इतने कुशल हैं कि वो ऐसा कर नहीं सके। क़ुरआन के अंदर ऐसे बहुत-से तार्किक प्रमाण एवं वैज्ञानिक तथ्य मौजूद हैं, जो यह बताते हैं कि यह किसी इन्सान की लिखी हुई किताब नहीं, बल्कि मानव जाति के पाक एवं उच्च पालनहार की वाणी है।
अल्लाह तआला ने आरंभ काल से ही रसूल भेजने का सिलसिला जारी रखा, ताकि लोगों को उनके पालनहार की ओर बुलाएँ और उनको अल्लाह के आदेश तथा निषेध पहुँचाएँ। तमाम रसूलों के आह्वान का सार था; एक सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह की इबादत। जब भी किसी समुदाय ने अपने रसूल की शिक्षा को छोड़ना या उसे बिगाड़ना शुरू किया, अल्लाह ने सुधार तथा एकेश्वरवाद एवं अनुसरण का मार्ग दिखाने के लिए दूसरा रसूल भेज दिया। इस सिलसिले का अंत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर किया, जो एक संपूर्ण दीन और क़यामत के दिन तक पैदा होने वाले तमाम लोगों के लिए एक शास्वत और पहले की तमाम शरीयतों के लिए पूरक एवं उनको निरस्त करने वाली शरीयत लेकर आए, जिसे क़यामत के दिन तक निरंतर रूप से बाक़ी रखने की गारंटी अल्लाह तआला ने दी है।
यही कारण है कि हम मुसलमान अल्लाह के आदेश का पालन करते हुए तमाम रसूलों एवं पिछली तमाम किताबों पर विश्वास रखते हैं।
अल्लाह तआला ने कहा है :﴿ءَامَنَ ٱلرَّسُولُ بِمَاۤ أُنزِلَ إِلَیۡهِ مِن رَّبِّهِۦ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَۚ كُلٌّ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَمَلَـٰۤىِٕكَتِهِۦ وَكُتُبِهِۦ وَرُسُلِهِۦ لَا نُفَرِّقُ بَیۡنَ أَحَدࣲ مِّن رُّسُلِهِۦۚ وَقَالُوا۟ سَمِعۡنَا وَأَطَعۡنَاۖ غُفۡرَانَكَ رَبَّنَا وَإِلَیۡكَ ٱلۡمَصِیرُ﴾ (रसूल उस चीज़ पर ईमान लाए, जो उनकी तरफ़ उनके पालनहार की ओर से उतारी गई तथा सब ईमान वाले भी। हर एक अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी पुस्तकों और उसके रसूलों पर ईमान लाया। (वे कहते हैं :) हम उसके रसूलों में से किसी एक के बीच अंतर नहीं करते। और उन्होंने कहा : हमने सुना और हमने आज्ञापालन किया। हम तेरी क्षमा चाहते हैं ऐ हमारे पालनहार! और तेरी ही ओर लौटकर जाना है।)[2: 285]. [2 : 285]
रसूल भेजने वाला अल्लाह है। जिसने किसी एक रसूल का इनकार किया, उसने दरअसल तमाम रसूलों का इनकार किया। क्योंकि इससे बड़ा गुनाह कुछ और नहीं हो सकता कि इन्सान अल्लाह की वह्य को ठुकराए। इस तरह, जन्नत में प्रवेश पाने के लिए तमाम रसूलों पर ईमान रखना ज़रूरी है।
अतः आज हर व्यक्ति को अनिवार्य रूप से अल्लाह के तमाम रसूलों पर ईमान लाना चाहिए, जिसे कार्य रूप में परिणत करने के लिए अल्लाह के अंतिम रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर ईमान लाना और उनकी शिक्षाओं पर अमल करना ज़रूरी है।
अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन में बताया है कि जिसने किसी भी रसूल पर ईमान लाने से इनकार किया, वह अल्लाह के प्रति अविश्वास व्यक्त करने वाला और उसकी वह्य को झुठलाने वाला है।
नीचे दी गई आयत को पढ़िए :"إنَّ الَّذِينَ يَكْفُرُونَ بِاللَّهِ ورُسُلِهِ ويُرِيدُونَ أنْ يُفَرِّقُوا بَيْنَ اللَّهِ ورُسُلِهِ ويَقُولُونَ نُؤْمِنُ بِبَعْضٍ ونَكْفُرُ بِبَعْضٍ ويُرِيدُونَ أنْ يَتَّخِذُوا بَيْنَ ذَلِكَ سَبِيلًا (निःसंदेह जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों के साथ कुफ़्र करते हैं और चाहते हैं कि अल्लाह तथा उसके रसूलों के बीच अंतर करें तथा कहते हैं कि हम कुछ पर ईमान रखते हैं और कुछ का इनकार करते हैं और चाहते हैं कि इसके बीच कोई राह अपनाएँ।أُولَئِكَ هُمُ الكافِرُونَ حَقًّا وأعْتَدْنا لِلْكَفَرَيْنِ عَذابًا مُهِينًا﴾". यही लोग वास्तविक काफ़िर हैं और हमने काफ़िरों के लिए अपमानकारी यातना तैयार कर रखी है।)[4: 150, 151]
इस्लाम नाम है, एकेश्वरवाद के मार्ग पर चलते हुए सर्वशक्तिमान अल्लाह के प्रति समर्पण, आज्ञाकारिता का प्रमाण देते हुए उसके आगे सिर झुकाने तथा सहमति एवं स्वीकृति के साथ उसकी शरीयत का पालन करने का।
अल्लाह ने तमाम रसूलों को एक ही संदेश के साथ भेजा। वह संदेश है, किसी को साझी बनाए बिना बस एक अल्लाह की इबादत का आह्वान।
इस्लाम ही तमाम नबियों का दीन है। उनका आह्वान एक है और शरीयतें अलग-अलग। आज केवल मुसलमान ही तमाम नबियों के लाए हुए सही धर्म का पालन करते हैं। आज इस्लाम का संदेश ही सच्चा संदेश है। क्योंकि जिस पालनहार ने इबराहीम, मूसा और ईसा अलैहिमुस्सलाम को भेजा था, उसी ने अंतिम रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भेजा है और इस्लामी शरीयत पहली तमाम शरीयतों को निरस्त करने वाली शरीयत के तौर पर आई है।
आज लोग इस्लाम के सिवा जितने भी धर्मों का पालन करते हैं, सब या तो मानव निर्मित धर्म हैं या फिर आकाशीय धर्म थे, लेकिन इन्सानी हाथों का खिलौना बन गए, जिसके कारण पाखंडों का ढेर और किदवंतियों एवं मानवीय प्रयासों का मिश्रण हो गए। जबकि मुसलमानों का धर्म परिवर्तनों से सुरक्षित एवं एक स्पष्ट धर्म है। ज़रा पवित्र क़ुरआन पर ग़ौर करें। दुनिया के तमाम देशों में वह एक ही किताब के रूप में पाया जाता है।
उच्च एवं महान अल्लाह ने क़ुरआन में कहा है :
قُلْ آمَنَّا بِاللَّهِ وَمَا أُنْزِلَ عَلَيْنَا وَمَا أُنْزِلَ عَلَى إِبْرَاهِيمَ وَإِسْمَاعِيلَ وَإِسْحَاقَ وَيَعْقُوبَ وَالْأَسْبَاطِ وَمَا أُوتِيَ مُوسَى وَعِيسَى وَالنَّبِيُّونَ مِنْ رَبِّهِمْ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ أَحَدٍ مِنْهُمْ وَنَحْنُ لَهُ مُسْلِمُونَ (84) (ऐ रसूल!) आप कह दें : हम अल्लाह पर ईमान लाए और उसपर जो हमपर उतारा गया, और जो इबराहीम, इसमाईल, इसह़ाक़, याक़ूब तथा उनकी संतान पर उतारा गया, और जो मूसा तथा ईसा और दूसरे नबियों को उनके पालनहार की ओर से दिया गया। हम इनमें से किसी एक के बीच अंतर नहीं करते और हम उसी (अल्लाह) के आज्ञाकारी हैं।وَمَنْ يَبْتَغِ غَيْرَ الْإِسْلَامِ دِينًا فَلَنْ يُقْبَلَ مِنْهُ وَهُوَ فِي الْآخِرَةِ مِنَ الْخَاسِرِينَ 85). और जो इस्लाम के अलावा कोई और धर्म तलाश करे, तो वह उससे हरगिज़ स्वीकार नहीं किया जाएगा और वह आख़िरत में घाटा उठाने वालों में से होगा।[3 : 84, 85]
क्या आप जानते हैं कि मुसलमानों के लिए ईसा अलैहिस्सलाम पर ईमान लाना, उनसे प्रेम रखना, उनका सम्मान करना और उनके पैग़ाम, एक अल्लाह की इबादत के आह्वान पर ईमान लाना वाजिब है? मुसलमान इस बात पर विश्वास रखते हैं कि अल्लाह के नबी ईसा (अलैहिस्सलाम) तथा मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) दोनों नबी थे और दोनों लोगों को अल्लाह तथा जन्नत का मार्ग दिखाने आए थे।
हमारा विश्वास है कि ईसा अलैहिस्सलाम अल्लाह के भेजे हुए महानतम रसूलों में से एक थे। हमारा विश्वास है कि वह चमत्कारिक रूप से पैदा किए गए थे। पवित्र एवं महान अल्लाह ने क़ुरआन में हमें बताया है कि उन्हें पिता के बिना पैदा किया था, जिस तरह आदम अलैहिस्सलाम को पिता एवं माता के बिना पैदा किया था। अल्लाह हर चीज़ पर सक्षम है।
हमारा विश्वास है कि ईसा अलैहिस्सलाम न तो पूज्य हैं, न अल्लाह के बेटे हैं और न उनको सूली पर चढ़ाया गया है। बल्कि वह जीवित हैं। अल्लाह ने उनको ऊपर उठा लिया है, ताकि अंतिम काल में एक न्यायकारी शासक के रूप में उतरें। उस समय वह मुसलमानों के साथ होंगे। क्योंकि मुसलमान ही ईसा तथा अन्य सभी नबियों (अलैहिमुस्सलाम) के लाए हुए एकेश्वरवाद पर विश्वास रखते हैं।
उच्च एवं महान अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन में हमें बताया है कि ईसाइयों ने ईसा अलैहिस्सलाम के संदेश को विकृत कर दिया और कुछ भटके हुए एवं गुमराह लोग हुए हैं, जिन्होंने इंजील को विकृत कर दिया, उसे बदल डाला और उसमें कई ऐसे पाठ जोड़ दिए, जो ईसा अलैहिस्सलाम ने नहीं कहे थे। इसका प्रमाण इंजील की एक से अधिक प्रतियाँ होना तथा उसके अंदर बहुत सारे विरोधाभासों का पाया जाना है।
अल्लाह ने हमें बताया है कि ईसा अलैहिस्सलाम अल्लाह की इबादत करते थे। उन्होंने किसी को अपनी इबादत करने नहीं कहा। वह लोगों को अपने सृष्टिकर्ता की इबादत करने का आदेश देते थे। लेकिन शैतान ने ईसाइयों को ईसा अलैहिस्सलाम की इबादत के मार्ग पर लगा दिया। अल्लाह ने क़ुरआन में हमें बताया है कि वह ग़ैरुल्लाह की इबादत करने वाले को कभी क्षमा नहीं करेगा और क़यामत के दिन ईसा अलैहिस्सलाम अपनी इबादत करने वालों से अपना संबंध तोड़ लेंगे। वह कहेंगे कि मैंने तुम्हें सृष्टिकर्ता की इबादत करने को कहा था। अपनी इबादत करने के लिए नहीं कहा था। इसका एक प्रमाण उच्च एवं महान अल्लाह का यह कथन है :
﴿یَـٰۤأَهۡلَ ٱلۡكِتَـٰبِ لَا تَغۡلُوا۟ فِی دِینِكُمۡ وَلَا تَقُولُوا۟ عَلَى ٱللَّهِ إِلَّا ٱلۡحَقَّۚ إِنَّمَا ٱلۡمَسِیحُ عِیسَى ٱبۡنُ مَرۡیَمَ رَسُولُ ٱللَّهِ وَكَلِمَتُهُۥۤ أَلۡقَىٰهَاۤ إِلَىٰ مَرۡیَمَ وَرُوحࣱ مِّنۡهُۖ فَـَٔامِنُوا۟ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦۖ وَلَا تَقُولُوا۟ ثَلَـٰثَةٌۚ ٱنتَهُوا۟ خَیۡرࣰا لَّكُمۡۚ إِنَّمَا ٱللَّهُ إِلَـٰهࣱ وَ ٰحِدࣱۖ سُبۡحَـٰنَهُۥۤ أَن یَكُونَ لَهُۥ وَلَدࣱۘ لَّهُۥ مَا فِی ٱلسَّمَـٰوَ ٰتِ وَمَا فِی ٱلۡأَرۡضِۗ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَكِیلࣰا﴾ (ऐ किताब वालो! अपने धर्म में हद से आगे न बढ़ो और अल्लाह के बारे में सत्य के सिवा कुछ न कहो। मरयम का पुत्र ईसा मसीह केवल अल्लाह का रसूल और उसका 'शब्द' है, जिसे (अल्लाह ने) मरयम की ओर भेजा तथा उसकी ओर से एक आत्मा है। अतः अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाओ और यह न कहो कि (पूज्य) तीन हैं। बाज़ आ जाओ! तुम्हारे लिए बेहतर होगा। अल्लाह केवल एक ही पूज्य है। वह इससे पवित्र है कि उसकी कोई संतान हो। उसी का है, जो कुछ आकाशों में है और जो कुछ धरती में है और अल्लाह कार्यसाधक के रूप में काफ़ी है।)[4 : 171]
अल्लाह तआला ने कहा है :(وَإِذْ قَالَ اللَّهُ يَا عِيسَى ابْنَ مَرْيَمَ أَأَنتَ قُلْتَ لِلنَّاسِ اتَّخِذُونِي وَأُمِّيَ إِلَٰهَيْنِ مِن دُونِ اللَّهِ ۖ قَالَ سُبْحَانَكَ مَا يَكُونُ لِي أَنْ أَقُولَ مَا لَيْسَ لِي بِحَقٍّ ۚ إِن كُنتُ قُلْتُهُ فَقَدْ عَلِمْتَهُ ۚ تَعْلَمُ مَا فِي نَفْسِي وَلَا أَعْلَمُ مَا فِي نَفْسِكَ ۚ إِنَّكَ أَنتَ عَلَّامُ الْغُيُوبِ (तथा जब अल्लाह (क़यामत के दिन) कहेगा : ऐ मरयम के पुत्र ईसा! क्या तुमने लोगों से कहा था कि मुझे तथा मेरी माँ को अल्लाह के अलावा दो पूज्य बना लो? वह कहेगा : तू पवित्र है, मुझसे यह कैसे हो सकता है कि ऐसी बात कहूँ, जिसका मुझे कोई अधिकार नहीं? यदि मैंने यह बात कही थी, तो निश्चय तूने उसे जान लिया। तू जानता है, जो मेरे मन में है और मैं नहीं जानता जो तेरे मन में है। निश्चय तू ही सब छिपी बातों (परोक्ष)) को बहुत ख़ूब जानने वाला है।)[5 : 116]
जिसे आख़िरत में मुक्ति चाहिए, वह इस्लाम ग्रहण कर ले और अंतिम नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अनुसरण करे
तमाम नबी तथा रसूल इस तथ्य पर एकमत हैं कि आख़िरत में केवल मुसलमानों ही को मुक्ति मिलेगी, जो अल्लाह पर ईमान रखते हैं, किसी को उसका साझी नहीं बनाते और तमाम नबियों एवं रसूलों पर विश्वास रखते हैं। रसूलों के सारे अनुयायी और उनपर विश्वास रखने वाले तथा उनको सच्चा मानने वाले सारे लोग जन्नत में प्रवेश पाएँगे तथा जहन्नम से मुक्ति प्राप्त करेंगे। चुनांचे जो लोग अल्लाह के नबी मूसा अलैहिस्सलाम के ज़माने में रहे, उनपर ईमान लाए और उनकी शिक्षाओं पर अमल किया, वो सच्चे मोमिन व मुसलमान थे। लेकिन जब अल्लाह ने ईसा अलैहिस्सलाम को भेज दिया, तो मूसा अलैहिस्सलाम का अनुसरण करने वालों पर ईसा अलैहिस्सलाम पर ईमान लाना अनिवार्य हो गया। ऐसे में, जो लोग ईसा अलैहिस्सलाम पर ईमान ले आए, वे सच्चे मुसलमान हैं। इसके विपरीत जिन्होंने ईसा अलैहिस्लाम को ठुकरा दिया और मूसा अलैहिस्सलाम के दीन पर क़ायम रहने की ज़िद पर अड़े रहे, वे मोमिन नहीं हैं। क्योंकि उन्होंने अल्लाह के भेजे हुए एक रसूल पर ईमान लाने से मना कर दिया। फिर जब अल्लाह ने अंतिम रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भेजा, तो सभी लोगों के लिए उन पर ईमान लाना अनिवार्य हो गया। क्योंकि वह पालनहार रब जिसने मूसा एवं ईसा अलैहिमस्सलाम को रसूल बनाकर भेजा, उसी पालनहार ने मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को अंतिम रसूल बनाकर भेजा, इस लिए जो व्यक्ति मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को रसूल नहीं मानेगा और कहेगा कि मैं मूसा अलैहिस्सलाम अथवा ईसा अलैहिस्सलाम के धर्म पर ही रहूंगा वह व्यक्ति मोमिन नहीं है।
किसी व्यक्ति का यह कहना काफ़ी नहीं है कि वह मुसलमानों का सम्मान करता है। आख़िरत में नजात प्राप्त करने के लिए सदक़ा करना और ग़रीबों की मदद करना भी काफ़ी नहीं है। इसके लिए अल्लाह, उसकी किताबों, उसके रसूलों और आख़िरत के दिन पर दिन पर ईमान ज़रूरी है। क्योंकि शिर्क, अल्लाह के इनकार, उसकी उतारी हुई वह्य को ठुकराने और अंतिम नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की नबूवत की अवहेलना से बड़ा कोई गुनाह नहीं है। अतः जिन यहूदियों, ईसाइयों तथा अन्य धर्म के मानने वालों ने मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के नबी होने की बात सुनी और आपपर ईमान लाने तथा इस्लाम धर्म को ग्रहण करने से इनकार कर दिया, उनको जहन्नम जाना पड़ेगा और वहाँ वो हमेशा रहेंगे। उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है :
{إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا مِنْ أَهْلِ الْكِتَابِ وَالْمُشْرِكِينَ فِي نَارِ جَهَنَّمَ خَالِدِينَ فِيهَا ۚ أُولَـٰئِكَ هُمْ شَرُّ الْبَرِيَّةِ} (निःसंदेह किताब वालों और मुश्रिकों में से जो लोग काफ़िर हो गए, वे सदा जहन्नम की आग में रहने वाले हैं, वही लोग सबसे बुरे प्राणी हैं।)[98 : 6]
चूँकि मानव समाज की ओर अल्लाह का अंतिम संदेश उतर चुका है, इसलिए इस्लाम तथा अंतिम नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की नबूवत की ख़बर पाने वाले हर व्यक्ति के लिए आपपर ईमान लाना, आपकी शरीयत का पालन करना और आपके आदेशों एवं निषेधों का पालन करना अनिवार्य है। अतः जिसने इस अंतिम संदेश के बारे में सुना और इसे ठुकरा दिया, अल्लाह उसकी ओर से कुछ भी ग्रहण नहीं करेगा और उसे आख़िरत में यातनाग्रस्त करेगा। इसका एक प्रमाण उच्च एवं महान अल्लाह का यह कथन है :
﴿وَمَن یَبۡتَغِ غَیۡرَ ٱلۡإِسۡلَـٰمِ دِینࣰا فَلَن یُقۡبَلَ مِنۡهُ وَهُوَ فِی ٱلۡـَٔاخِرَةِ مِنَ ٱلۡخَـٰسِرِینَ﴾ (और जो इस्लाम के अलावा कोई और धर्म तलाश करे, तो वह उससे हरगिज़ स्वीकार नहीं किया जाएगा और वह आख़िरत में घाटा उठाने वालों में से होगा।)[3 : 85]
एक अन्य स्थान में अल्लाह तआला ने कहा है :(قُلْ يَا أَهْلَ الْكِتَابِ تَعَالَوْا إِلَىٰ كَلِمَةٍ سَوَاءٍ بَيْنَنَا وَبَيْنَكُمْ أَلَّا نَعْبُدَ إِلَّا اللَّهَ وَلَا نُشْرِكَ بِهِ شَيْئًا وَلَا يَتَّخِذَ بَعْضُنَا بَعْضًا أَرْبَابًا مِّن دُونِ اللَّهِ ۚ فَإِن تَوَلَّوْا فَقُولُوا اشْهَدُوا بِأَنَّا مُسْلِمُونَ) ((ऐ नबी!) कह दीजिए : ऐ किताब वालो! आओ एक ऐसी बात की ओर जो हमारे बीच और तुम्हारे बीच समान (बराबर) है; यह कि हम अल्लाह के सिवा किसी की इबादत न करें और उसके साथ किसी चीज़ को साझी न बनाएँ तथा हममें से कोई किसी को अल्लाह के सिवा रब न बनाए। फिर यदि वे मुँह फेर लें, तो कह दो कि तुम गवाह रहो कि हम (अल्लाह के) आज्ञाकारी हैं।)[3 : 64]
मुसलमान होने के लिए इन छह स्तंभों पर ईमान लाना होगा :
अल्लाह तआला पर तथा इस बात पर विश्वास रखना कि वह सृष्टिकर्ता, आजीविकादाता, संचालनकर्ता और मालिक है। उसके जैसी कोई चीज़ नहीं है। उसकी न पत्नी है, न संतान। वही इबादत का हक़दार है।
इस बात पर ईमान कि फ़रिश्ते अल्लाह के बंदे हैं, अल्लाह ने उनको नूर से पैदा किया है और उनको एक काम यह दिया है कि वे नबियों के पास वह्य लेकर आया करते थे।
नबियों पर अल्लाह की ओर से उतरने वाली तमाम किताबों (जैसे तौरात एवं इंजील -उनके साथ छेड़-छाड़ होने से पहले तक) और अंतिम किताब पवित्र क़ुरआन पर विश्वास।
तमाम रसूलों, जैसे नूह, इबराहीम, मूसा, ईसा अलैहिमुस्सलाम तथा अंतिम नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर ईमान रखना और इस बात का विश्वास रखना कि वे इन्सान थे, उनपर अल्लाह ने वह्य उतारी थी और उनको ऐसी निशानियाँ तथा चमत्कार दिए थे, जो उनके सच्चे नबी होने को प्रमाणित करते थे।
आख़िरत के दिन पर ईमान, जब अल्लाह अगले तथा पिछले तमाम लोगों को जीवित करके दोबारा उठाएगा, अपनी सृष्टियों के दरमियान निर्णय करेगा और विश्वास रखने वालों को जन्नत तथा विश्वास न रखने वालों को जहन्नम में दाख़िल करेगा।
तक़दीर पर ईमान तथा इस बात पर विश्वास कि अल्लाह सब कुछ जानता है। उन बातों को भी जो अब तक हो चुकी हैं और उन बातों को भी जो आगे होंगी। अल्लाह ने इन्हें लिख भी रखा है। इस संसार में जो कुछ भी होता है, उसकी मर्ज़ी से होता है और वही हर चीज़ का रचयिता है।
इस्लाम तमाम नबियों का दीन है। केवल अरबों का दीन नहीं।
इस्लाम इस दुनिया की सच्ची ख़ुशी और आख़िरत के शास्वत आनंद का मार्ग है।
इस्लाम एकमात्र ऐसा धर्म है जो आत्मा और शरीर की जरूरतों को पूरा करने और सभी मानवीय समस्याओं को हल करने में सक्षम है।
अल्लाह तआला ने कहा है :
{قَالَ اهْبِطَا مِنْهَا جَمِيعًا بَعْضُكُمْ لِبَعْضٍ عَدُوٌّ فَإِمَّا يَأْتِيَنَّكُمْ مِنِّي هُدًى فَمَنِ اتَّبَعَ هُدَايَ فَلا يَضِلُّ وَلا يَشْقَى (फरमाया : तुम दोनों यहाँ से एक साथ उतर जाओ, तुम एक-दूसरे के शत्रु हो। फिर अगर कभी मेरी ओर से तुम्हारे पास कोई हिदायत आए, तो जो कोई मेरी हिदायत पर चला, तो न वह भटकेगा और न मुसीबत में पड़ेगा।وَمَنْ أَعْرَضَ عَنْ ذِكْرِي فَإِنَّ لَهُ مَعِيشَةً ضَنْكًا وَنَحْشُرُهُ يَوْمَ الْقِيَامَةِ أَعْمَى तथा जिसने मेरी नसीहत से मुँह फेरा, तो निःसंदेह उसके लिए तंग जीवन है और हम उसे क़यामत के दिन अंधा करके उठाएँगे।)[20 : 123, 124]
इस्लाम ग्रहण करने के बड़े लाभ हैं। जैसे :
- दुनिया में यह कामयाबी और सम्मान कि इन्सान अल्लाह का बंदा होकर जीवन व्यतीत करे। अगर ऐसा न हो, तो वह हवा-ए-नफ़्स, शैतान और आकांक्षाओं का बंदा बनकर रह जाए।
- आख़िरत में यह सफलता कि अल्लाह की क्षमा एवं उसकी प्रसन्नता प्राप्त होती है, अल्लाह उसे जन्नत एवं उसकी कभी ख़त्म न होने वाली नेमतें प्रदान करता है और वह जहन्नम की यातना से छुटकारा प्राप्त कर लेता है।
- और अल्लाह जिन्हें जन्नत प्रदान करेगा वे सदैव नेमतों में रहेंगे जहां मृत्यु, किसी प्रकार की बीमारी, कोई कष्ट, किसी प्रकार का दुखः या बुढ़ापा नहीं होगा, और वे जिस चीज़ की इच्छा करेंगे उन्हें वही मिलेगा।
- जन्नत में ऐसी-ऐसी चीज़ें हैं, जिन्हें न किसी आँख ने देखा है, न उनके बारे में किसी कान ने सुना है और न उनकी कल्पना किसी इन्सान के दिल ने की है।
इसका एक प्रमाण उच्च एवं महान अल्लाह का यह कथन है :﴿مَنۡ عَمِلَ صَـٰلِحࣰا مِّن ذَكَرٍ أَوۡ أُنثَىٰ وَهُوَ مُؤۡمِنࣱ فَلَنُحۡیِیَنَّهُۥ حَیَوٰةࣰ طَیِّبَةࣰۖ وَلَنَجۡزِیَنَّهُمۡ أَجۡرَهُم بِأَحۡسَنِ مَا كَانُوا۟ یَعۡمَلُونَ﴾ (जो भी अच्छा कार्य करे, नर हो अथवा नारी, जबकि वह ईमान वाला हो, तो हम उसे अच्छा जीवन व्यतीत कराएँगे। और निश्चय हम उन्हें उनका बदला उन उत्तम कार्यों के अनुसार प्रदान करेंगे जो वे किया करते थे।)[16 : 97]
इन्सान सबसे बड़े ज्ञान अर्थात अल्लाह के ज्ञान और उसके परिचय से हाथ धो लेगा। वह अल्लाह पर ईमान की दौलत से वंचित हो जाएगा। उस ईमान की दौलत से, जो इन्सान को दुनिया में सुरक्षा एवं शांति तथा आख़िरत में कभी न ख़त्म होने वाली नेमतें प्रदान करता है।
इन्सान लोगों के लिए अल्लाह की उतारी हुई महानतम किताब की शिक्षाओं से अवगत होने और उसपर ईमान लाने के सौभाग्य से वंचित हो जाएगा।
इन्सान अल्लाह के नबियों पर ईमान और जन्नत में उनकी संगति से वंचित रह जाएगा। उसे जहन्नम की आग में शैतानों, अपराधियों तथा अत्याचारियों के साथ जलना पड़ेगा। स्थान भी बुरा और साथी भी बुरे।
एक अन्य स्थान में कहा है :
قُلْ إِنَّ الْخَاسِرِينَ الَّذِينَ خَسِرُوا أَنْفُسَهُمْ وَأَهْلِيهِمْ يَوْمَ الْقِيَامَةِ أَلا ذَلِكَ هُوَ الْخُسْرَانُ الْمُبِينُ (15) (आप कह दें : निःसंदेह वास्तविक घाटे में पड़ने वाले तो वे हैं, जिन्होंने क़यामत के दिन खुद को तथा अपने घर वालों को घाटे में डाला। सुन लो! यही खुला घाटा है।لَهُمْ مِنْ فَوْقِهِمْ ظُلَلٌ مِنَ النَّارِ وَمِنْ تَحْتِهِمْ ظُلَلٌ ذَلِكَ يُخَوِّفُ اللَّهُ بِهِ عِبَادَهُ يَا عِبَادِ فَاتَّقُونِ } . उनके लिए उनके ऊपर से आग के छत्र होंगे तथा उनके नीचे से भी छत्र होंगे। यही वह चीज़ है, जिससे अल्लाह अपने बंदों को डराता है। ऐ मेरे बंदो! अतः तुम मुझसे डरो।)[39 : 15, 16]
दुनिया हमेशा रहने की जगह नहीं है ...
इसकी सारी चमक-दमक और माया-मोह के दिए बुझ जाने हैं ...
और बहुत जल्द वह दिन आने वाला है, जब आप को किए हुए हर अमल का जवाब देना होगा। वह दिन क़यामत का दिन होगा। उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है :{وَوُضِعَ الْكِتَابُ فَتَرَى الْمُجْرِمِينَ مُشْفِقِينَ مِمَّا فِيهِ وَيَقُولُونَ يَا وَيْلَتَنَا مَالِ هَذَا الْكِتَابِ لاَ يُغَادِرُ صَغِيرَةً وَلاَ كَبِيرَةً إِلاَّ أَحْصَاهَا وَوَجَدُوا مَا عَمِلُوا حَاضِرًا وَلاَ يَظْلِمُ رَبُّكَ أَحَدًا} (और किताब सामने रख दी जाएगी, तो आप अपराधियों को देखेंगे कि जो कुछ उसमें होगा, उससे डरने वाले होंगे और कहेंगे : हाय हमारा विनाश! यह कैसी किताब है, जो न कोई छोटी बात छोड़ती है न बड़ी, परंतु उसने उसे संरक्षित कर रखा है। तथा उन्होंने जो कर्म किए थे, सब अंकित पाएँगे। और आपका पालनहार किसी पर अत्याचार नहीं करेगा।)[18 : 49]
सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह ने बता दिया है कि इस्लााम ग्रहण न करने वाले को अनंत काल तक जहन्नम की आग में जलना पड़ेगा।
इसलिए नुक़सान छोटा-मोटा नहीं, बल्कि बहुत बड़ा है।{وَمَن يَبْتَغِ غَيْرَ الْإِسْلَامِ دِينًا فَلَن يُقْبَلَ مِنْهُ وَهُوَ فِي الْآخِرَةِ مِنَ الْخَاسِرِينَ } (और जो इस्लाम के अलावा कोई और धर्म तलाश करे, तो वह उससे हरगिज़ स्वीकार नहीं किया जाएगा और वह आख़िरत में घाटा उठाने वालों में से होगा।)[3 : 85]
इस्लाम ही वह धर्म है, जिसके अतिरिक्त किसी धर्म को अल्लाह स्वीकार नहीं करता।
वह अल्लाह, जिसने हमें पैदा किया, हमें उसी की ओर लौटकर जाना है और यह दुनिया हमारी परीक्षा की जगह है।
इस बात का यक़ीन रखें कि यह दुनिया बहुत छोटी है। जैसे एक स्वप्न हो। कोई नहीं जानता कि कब उसकी मौत आ जाए।
ऐसे में आपका जवाब क्या होगा, जब क़यामत के दिन आपका रचयिता आप से पूछेगा : तुमने सच्चे धर्म का पालन क्यों नहीं किया? अंतिम नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अनुसरण क्यों नहीं किया?
ऐसे में आप क़यामत के दिन अपने रब को क्या जवाब देगे? हालाँकि आपके पालनहार ने आपको इस्लाम को ठुकराने के परिणाम से अवगत कर दिया था और बता दिया था कि इस्लाम को ग्रहण न करने वालों का ठिकाना जहन्नम होगा, जहाँ उनको अनंत काल तक रहना है।
अल्लाह तआला ने कहा है :﴿وَالَّذِينَ كَفَرُوا وَكَذَّبُوا بِآيَاتِنَا أُولَئِكَ أَصْحَابُ النَّارِ هُمْ فِيهَا خَالِدُونَ﴾ (तथा जिन्होंने कुफ़्र किया और हमारी आयतों को झुठलाया, वही लोग आग (जहन्नम) वाले हैं। वे उसमें हमेशा रहने वाले हैं।)[2: 39]. [2 : 39]
सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह ने बताया है कि बहुत-से लोग उस समाज के भय से इस्लाम ग्रहण नहीं करते हैं, जिसमें वे जी रहे होते हैं।
बहुत-से लोग इस्लाम को अस्वीकार करते हैं, क्योंकि वे अपनी उन मान्यताओं को बदलना नहीं चाहते हैं, जो उन्हें अपने पूर्वजों से विरासत में मिली हैं और जिनके वे आदी हो गए हैं। जबकि बहुत-से लोगों का रास्ता उनको विरासत में मिला हुआ तास्सुब एवं असत्य की तरफ़दारी रोक लेती है।
लेकिन इन तमाम लोगों के ये बहाने एवं तर्क उस दिन कुछ काम नहीं आएँगे। उस दिन वे अल्लाह के सामने इस हाल में खड़े होंगे कि उनका दामन तर्क से खाली होगा।
किसी नास्तिक का यह बहाना नहीं चलेगा कि चूँकि मैं एक नास्तिक परिवार में पैदा हुआ हूँ, इसलिए मैं नास्तिक ही रहूँगा। उसे अल्लाह की दी हुई अक़्ल को काम में लाना पड़ेगा, आकाशों एवं धरती की महानता पर ग़ौर करना पड़ेगा और अपने सृष्टिकर्ता की दी हुई अक़्ल का प्रयोग करके इस संसार के सृष्टिकर्ता का पता लगाना होगा। इसी तरह पत्थरों एवं मूर्तियों की पूजा करने वालों का यह बहाना नहीं चलेगा कि उन्होंने अपने पूर्वजों को ऐसा करते हुए पाया है। उन्हें सत्य की खोज करनी होगी और अपने नफ़्स से पूछना होगा कि मैं एक बेजान चीज़ की पूजा क्यों करूँ, जो न मेरी बात सुन सकती है, न मुझे देख सकती है और न मेरा कुछ भला कर सकती है?!
इसी तरह, एक ईसाई, जो प्रकृति एवं तर्क के विपरीत चीज़ों पर विश्वास रखता है, उसे ख़ुद से पूछना चाहिए कि अल्लाह अपने बेटे को, जिसने कोई गुनाह नहीं किया था, दूसरे लोगों के गुनाहों के कारण कैसे मार सकता है?! यह तो सरासर अन्याय है। फिर, लोगों के लिए कैसे संभव हो सकता है कि वह अल्लाह के बेटे को सूली पर चढ़ा दें और मार डालें? क्या अल्लाह अपने बेटे को मारने की अनुमति दिए बिना मानवता के पापों को क्षमा करने में सक्षम नहीं है? क्या अल्लाह अपने बेटे की रक्षा करने की क्षमता नहीं रखता?
एक समझदार व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह सत्य की खोज करे और अपने पूर्वजों का ग़लत अनुसरण न करे।
अल्लाह तआला ने कहा है :﴿وَإِذَا قِیلَ لَهُمۡ تَعَالَوۡا۟ إِلَىٰ مَاۤ أَنزَلَ ٱللَّهُ وَإِلَى ٱلرَّسُولِ قَالُوا۟ حَسۡبُنَا مَا وَجَدۡنَا عَلَیۡهِ ءَابَاۤءَنَاۤۚ أَوَلَوۡ كَانَ ءَابَاۤؤُهُمۡ لَا یَعۡلَمُونَ شَیۡـࣰٔا وَلَا یَهۡتَدُونَ﴾ (और जब उनसे कहा जाता है : आओ उसकी ओर जो अल्लाह ने उतारा है और रसूल की ओर, तो कहते हैं : हमें वही काफ़ी है, जिसपर हमने अपने बाप-दादा को पाया है। क्या अगरचे उनके बाप-दादा कुछ भी न जानते हों और न मार्गदर्शन पाते हों।)[5 : 104]
जो व्यक्ति इस्लाम ग्रहण करना चाहता हो और अपने आस-पास के माहौल से डरता हो, वह ऐसा कर सकता है कि इस्लाम ग्रहण करने के बाद अपने इस्लाम को उस समय तक छुपाए रखे, जब तक अल्लाह उसके लिए खुल कर अपने धर्म पर अमल करने का रास्ता न निकाल दे।
क्योंकि आप पर अविलंब इस्लाम ग्रहण करना तो वाजिब है, लेकिन अगर किसी तरह के नुक़सान का डर हो तो अपने आस-पास के लोगों को उसकी सूचना देना ज़रूरी नहीं है।
जान लें कि जब आप इस्लाम ग्रहण कर लेंगे, तो करोड़ों मुसमानों के भाई हो जाएँगे और आप अपने शहर में स्थित मस्जिद या इस्लामी आह्वान केंद्र से संपर्क करके उनसे परामर्श ले सकते हैं और मदद मांग सकते हैं और इससे उन्हें ख़ुशी ही होगी।
अल्लाह तआला ने कहा है :
{وَمَنْ يَتَّقِ اللَّهَ يَجْعَلْ لَهُ مَخْرَجًا وَيَرْزُقْهُ مِنْ حَيْثُ لَا يَحْتَسِب} (और जो अल्लाह से डरेगा, वह उसके लिए निकलने का कोई रास्ता बना देगा।)[65 : 2,3]
क्या अपने सृष्टिकर्ता अल्लाह को प्रसन्न करना, जिसने आपको सारी नेमतें दे रखी हैं और जो आपको उस समय रोज़ी देता था, जब आप माँ के पेट में थे और इस समय आपको साँस लेने के लिए शुद्ध हवा प्रदान करता है, लोगों की प्रसन्नता प्राप्त करने से ज़्यादा अहम नहीं है?
क्या दुनिया एवं आख़िरत की कामयाबी इस बात की हक़दार नहीं है कि उसके लिए इस फ़ानी दुनिया के सुखों का परित्याग किया जाए? अवश्य ही है!
आप अपने अतीत को अपना मार्ग दुरुस्त करने और सही काम करने से रोकने न दें।
आज ही सच्चे मोमिन बन जाएँ और शैतान को इस बात का मौक़ा न दें कि वह आपको सत्य के अनुसरण से रोक दे।
अल्लाह तआला ने कहा है :
{يَا أَيُّهَا النَّاسُ قَدْ جَاءَكُمْ بُرْهَانٌ مِنْ رَبِّكُمْ وَأَنزلْنَا إِلَيْكُمْ نُورًا مُبِينًا (174) (ऐ लोगो! तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की ओर से एक स्पष्ट प्रमाण आ गया है और हमने तुम्हारी ओर एक स्पष्ट प्रकाश उतार दी है।فَأَمَّا الَّذِينَ آمَنُوا بِاللَّهِ وَاعْتَصَمُوا بِهِ فَسَيُدْخِلُهُمْ فِي رَحْمَةٍ مِنْهُ وَفَضْلٍ وَيَهْدِيهِمْ إِلَيْهِ صِرَاطًا مُسْتَقِيمًا (175) } फिर जो लोग अल्लाह पर ईमान लाए तथा इस (क़ुरआन) को मज़बूती से थाम लिया, तो वह उन्हें अपनी विशेष दया तथा अनुग्रह में दाख़िल करेगा और उन्हें अपनी ओर सीधी राह दिखाएगा।)[4 : 174, 175]
यदि अब तक बताई गई सारी बातें आपकी नज़र में तर्कसंगत हैं और आपने दिल से सच्चाई का एतराफ़ कर लिया है, तो आपको इस्लाम ग्रहण करने की ओर पहला क़दम उठा लेना चाहिए। क्या आपको मुझसे अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय लेने में कोई सहयोग और मुसलमान होने का तरीक़ा जानने के संबंध में कई मार्गदर्शन चाहिए?
आप अपने गुनाहों को इस्लाम ग्रहण करने के मार्ग का रोड़ा न बनने दें। क्योंकि उच्च एवं महान अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन में हमें बता दिया है कि बंदा जब अपने सृष्टिकर्ता के आगे तौबा करता है, तो अल्लाह उसके सारे गुनाह माफ़ कर देता है। खुद इस्लाम ग्रहण करने के बाद भी इन्सान से कुछ न कुछ गुनाह हो सकते हैं। क्योंकि हम इन्सान हैं। गुनाहों से पाक फ़रिश्ते नहीं। ऐसे में हमारा कर्तव्य है कि हम अल्लाह से क्षमा माँगें और उसके सामने तौबा करें। जब अल्लाह देखेगा कि हमने समय गँवाए बिना सत्य को ग्रहण कर लिया है, इस्लाम को गले लगा लिया है और दोनों गवाहियाँ दे दी हैं, तो वह दूसरे गुनाह छोड़ने पर हमारी मदद करेगा। क्योंकि जो अल्लाह की ओर चलकर जाता है और सत्य को ग्रहण करता है, अल्लाह उसे और अधिक नेकी का सुयोग प्रदान करता है।इसलिए इस्लाम ग्रहण करने में संकोच न करें।
इसका एक प्रमाण उच्च एवं महान अल्लाह का यह कथन है :﴿قُل لِّلَّذِینَ كَفَرُوۤا۟ إِن یَنتَهُوا۟ یُغۡفَرۡ لَهُم مَّا قَدۡ سَلَفَ﴾ ((ऐ नबी!) इन काफ़िरों से कह दें : यदि वे बाज़ आ जाएँ, तो जो कुछ हो चुका, उन्हें क्षमा कर दिया जाएगा, और यदि वे फिर ऐसा ही करें, तो पहले लोगों (के बारे में अल्लाह) का तरीक़ा गुज़र ही चुका है।)[8 : 38]
जो व्यक्ति इस्लाम ग्रहण करना चाहे, उसे कोई अनुष्ठान नहीं कराना है। किसी की उपस्थिति भी आवश्यक नहीं है। हाँ, अगर किसी मुसलमान की उपस्थिति या किसी इस्लामी केंद्र में इस्लाम ग्रहण करे, तो सबसे अच्छा है। लेकिन अगर ऐसा न हो, तो कोई बात नहीं। बस इतना कह देना काफ़ी है : "أشهد أن لا إله إلا الله وأشهد أن محمدًا رسول الله" (मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई सत्य पूज्य नहीं है और मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के रसूल हैं।) अगर इस वाक्य को अरबी भाषा में बोल सके, तो ठीक है। अगर इसमें कठिनाई हो, तो अपनी भाषा में बोल दे। इतने भर से वह मुसलमान हो जाएगा। उसके बाद वह अपना दीन सीखे, जो दुनिया में उसके सुखमय जीवन तथा आख़िरत में मुक्ति का स्रोत है।
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