Description
इस्लाम : पवित्र क़ुरआन तथा अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत के आलोक में इस्लाम का परिचय प्रस्तुत करने वाली एक संक्षिप्त पुस्तिका
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Topics
अल्लाह के नाम से (शुरू करता हूँ), जो बड़ा दयालु एवं दयावान है।
(तर्क रहित संस्करण)
यह इस्लाम के संक्षिप्त परिचय पर आधारित, एक अति महत्वपूर्ण पुस्तिका है, जिसमें इस धर्म के अहम उसूलों, शिक्षाओं तथा विशेषताओं का, इस्लाम के दो असली संदर्भों अर्थात क़ुरआन एवं हदीस की रोशनी में, वर्णन किया गया है। यह पुस्तिका परिस्थितियों और हालात से इतर, हर समय और हर स्थान के मुस्लिमों तथा गैर-मुस्लिमों को उनकी ज़ुबानों में संबोधित करती है।
1. इस्लाम, दुनिया के समस्त लोगों की तरफ अल्लाह का अंतिम एवं अजर-अमर पैगाम है।
2. इस्लाम, किसी लिंग विशेष या जाति विशेष का नहीं, अपितु समस्त लोगों के लिए अल्लाह तआला का धर्म है।
3. इस्लाम वह ईश्वरीय संदेश है, जो पहले के नबियों और रसूलों के उन संदेशों को पूर्णता प्रदान करने आया, जो वे अपनी कौमों की तरफ लेकर प्रेषित हुए थे।
4. समस्त नबियों का धर्म एक और शरीयतें (धर्म-विधान) भिन्न थीं।
5. तमाम नबियों और रसूलों, जैसे नूह, इबराहीम, मूसा, सुलैमान, दाऊद और ईसा -अलैहिमुस सलाम- आदि ने जिस बात की ओर बुलाया, उसी की ओर इस्लाम भी बुलाता है, और वह है इस बात पर ईमान कि सबका पालनहार, रचयिता, रोज़ी-दाता, जिलाने वाला, मारने वाला और पूरे ब्रह्मांड का स्वामी केवल अल्लाह है। वही है जो सारे मामलात का व्यस्थापक है और वह बेहद दयावान और कृपालु है।
6. अल्लाह तआला ही एक मात्र रचयिता है और बस वही पूजे जाने का हक़दार है। उसके साथ किसी और की पूजा-वंदना करना पूर्णतया अनुचित है।
7. दुनिया की हर वस्तु, चाहे हम उसे देख सकें या नहीं देख सकें, का रचयिता बस अल्लाह है। उसके अतिरिक्त जो कुछ भी है, उसी की सृष्टि है। अल्लाह तआला ने आसमानों और धरती को छः दिनों में पैदा किया है।
8. बादशाहत, सृजन, व्यवस्थापन और इबादत में अल्लाह तआला का कोई साझी एवं शरीक नहीं है।
9. अल्लाह तआला ने ना किसी को जना और ना ही वह स्वयं किसी के द्वारा जना गया, ना उसका समतुल्य कोई है और ना ही कोई समकक्ष।
10. अल्लाह तआला किसी चीज़ में प्रविष्ट नहीं होता और ना ही अपनी सृष्टि में से किसी चीज़ में रूपांत्रित होता है।
11. अल्लाह तआला अपने बंदों पर बड़ा ही दयावान और कृपाशील है। इसी लिए उसने बहुत सारे रसूल भेजे और बहुत सारी किताबें उतारीं।
12. अल्लाह तआला ही वह अकेला दयावान रब है, जो क़यामत के दिन समस्त इनसानों का, उन्हें उनकी क़ब्रों से दोबारा जीवित करके उठाने के बाद, हिसाब-किताब लेगा और हर व्यक्ति को उसके अच्छे-बुरे कर्मों के अनुसार प्रतिफल देगा। जिसने मोमिन रहते हुए अचछे कर्म किए होंगे, उसे हमेशा रहने वाली नेमतें प्रदान करेगा और जो दुनिया में काफ़िर रहा होगा और बुरे कर्म किए होंगे, उसे प्रलय में भयंकर यातना से ग्रस्त करेगा।
13. अल्लाह तआला ने आदम को मिट्टी से पैदा किया और उनके बाद उनकी संतान को धीरे-धीरे पूरी धरती पर फैला दिया। इस तरह तमाम इनसान मूल रूप से पूर्णतया एक समान हैं। किसी लिंग विशेष को किसी अन्य लिंग पर और किसी कौम को किसी दूसरी क़ौम पर, तक़वा एवं परहेज़गारी के अलावा, कोई वरीयता प्राप्त नहीं है।
14. हर बच्चा, प्रकृति पर अर्थात मुसलमान होकर पैदा होता है।
15. कोई भी इनसान, जन्म-सिद्ध पापी नहीं होता और ना ही किसी और के गुनाह का उत्तराधिकारी बनकर पैदा होता है।
16. मानव-रचना का मुख्यतम उद्देश्य, केवल एक अल्लाह की पूजा-उपासना है।
17. इस्लाम ने समस्त इनसानों, नर हों कि नारी, को सम्मान प्रदान किया है, उन्हें उनके समस्त अधिकारों की ज़मानत दी है, हर इनसान को उसके समस्त अधिकारों और क्रियाकलापों के परिणाम का ज़िम्मेदार बनाया है, और उसके किसी भी ऐसे कर्म का भुक्तभोगी भी उसे ही ठहराया है जो स्वयं उसके लिए अथवा किसी दूसरे इनसान के लिए हानिकारक हो।
18. नर-नारी दोनों को, दायित्व, श्रेय और पुण्य के ऐतबार से बराबरी का दर्जा दिया है।
19. इस्लाम धर्म ने नारी को इस प्रकार भी सम्मान दिया है कि उसे पुरुष का आधा भाग माना है। यदि पुरुष सक्षम हो तो उसी को नारी के हर प्रकार का खर्च उठाने का दायित्व दिया है। इसलिए, बेटी का खर्च बाप पर, यदि बेटा जवान और सक्षम हो तो उसी पर माँ का खर्च और पत्नी का खर्च पति पर वाजिब किया है।
20. मृत्यु का मतलब कतई यह नहीं है कि इनसान सदा के लिए फ़ना हो गया, अपितु वास्तव में इनसान मृत्यु की सवारी पर सवार होकर, कर्मभूमि से श्रेयालय की ओर प्रस्थान करता है। मृत्यु, शरीर एवं आत्मा दोनों को अपनी जकड़ में लेकर मार डालती है। आत्मा की मृत्यु का मतलब, उसका शरीर को त्याग देना है, फिर वह क़यामत के दिन दोबारा जीवित किए जाने के बाद, वही शरीर धारण कर लेगी। आत्मा, मृत्यु के बाद ना दूसरे किसी शरीर में स्थानांतरित होती है और ना ही वह किसी अन्य शरीर में प्रविष्ट होती है।
21. इस्लाम, ईमान के सभी बड़े और बुनियादी उसूलों पर अटूट विश्वास रखने की माँग करता है जो इस प्रकार हैं :अल्लाह और उसके फ़रिश्तों पर ईमान लाना, ईश्वरीय ग्रंथों जैसे परिवर्तन से पहले की तौरात, इंजील और ज़बूर पर और क़ुरआन पर ईमान लाना, समस्त नबियों और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- पर और उन सबकी अंतिम कड़ी मुह़म्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- पर ईमान लाना तथा आख़िरत के दिन पर ईमान लाना। यहाँ पर हमें यह बात अच्छी तरह जान लेना चाहिए कि यदि दुनिया का यही जीवन, अंतिम जीवन होता तो ज़िंदगी और अस्तित्व बिल्कुल बेकार और बेमायने होते। ईमान के उसूलों की अंतिम कड़ी, लिखित एवं सुनिश्चित भाग्य पर ईमान रखना है।
22. नबी एवं रसूल-गण, अल्लाह का संदेश पहुँचाने और हर उस वस्तु विशेष के मामले में, जिसे विवेक तथा सद्बुद्धि नकारती है, सर्वथा मासूम एवं निष्पाप हैं। उनका दायित्व केवल इतना है कि वे अल्लाह तआला के आदेशों एवं निषेधों को पूरी ईमानदारी के साथ बंदों तक पहुँचा दें। याद रहे कि नबी और रसूल-गण में ईश्वरीय गुण, कण-मात्र भी नहीं था। वे दूसरे मनुष्यों की तरह ही मानव मात्र थे। उनके अंदर, केवल इतनी विशेषता होती थी कि वे अल्लाह की वह़्य (प्रकाशना) के वाहक हुआ करते थे।
23. इस्लाम, बड़ी और महत्वपूर्ण इबादतों के नियम-क़ानून की पूर्णतया पाबंदी करते हुए, केवल एक अल्लाह की इबादत करने का आदेश देता है, जिनमें से एक नमाज़ है। नमाज़ क़ियाम (खड़ा होना), रुकू (झुकना), सजदा, अल्लाह को याद करने, उसकी स्तुति एवं गुणगान करने और उससे दुआ एवं प्रार्थना करने का संग्रह है। हर व्यक्ति पर दिन- रात में पाँच वक़्त की नमाज़ें अनिवार्य हैं। नमाज़ में जब सभी लोग एक ही पंक्ति में खड़े होते हैं तो अमीर-गरीब और आक़ा व गुलाम का सारा अंतर मिट जाता है। दूसरी इबादत ज़कात है। ज़कात माल के उस छोटे से भाग को कहते हैं जो अल्लाह तआला के निर्धारित किए हुए नियम-क़ानून के अनुसार साल में एक बार, मालदारों से लेकर गरीबों आदि में बाँट दिया जाता है। तीसरी इबादत रोज़ा है जो रमज़ान महीने के दिनों में खान-पान और दूसरी रोज़ा तोड़ने वाली वस्तुओं से रुक जाने का नाम है। रोज़ा, आत्मा को आत्मविश्वास और धैर्य एवं संयम सिखाता है। चौथी इबादत हज है, जो केवल उन मालदारों पर जीवन भर में सिर्फ एक बार फ़र्ज़ है, जो पवित्र मक्का में स्थित पवित्र काबे तक पहुँचने की क्षमता रखते हों। हज एक ऐसी इबादत है जिसमें दुनिया भर से आए हुए तमाम लोग, अल्लाह तआला पर ध्यान लगाने के मामले में बराबर हो जाते हैं और सारे भेद-भाव तथा संबद्धताएँ धराशायी हो जाती हैं।
24. इस्लामी इबादतों की शीर्ष विशेषता जो उन्हें अन्य धर्मों की इबादतों के मुक़ाबले में विशिष्टता प्रदान करती है, यह है कि उनको अदा करने का तरीक़ा, उनका समय और उनकी शर्तें, सब कुछ अल्लाह तआला ने निर्धारित किया है और उसके रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने उन्हें अपनी उम्मत तक पहुँचा दिया है। आज तक उनके अंदर कमी-बेशी करने के मकसद से कोई भी इनसान दबिश नहीं दे सका है, और सबसे बड़ी बात यह है कि यही वह इबादतें हैं जिनके क्रियान्वयन की ओर समस्त नबियों और रसूलों ने अपनी-अपनी उम्मत को बुलाया था।
25. इस्लाम के रसूल (संदेष्टा), इसमाईल बिन इबराहीम -अलैहिमुस्सलाम- के वंशज से ताल्लुक रखने वाले मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- हैं, जिनका जन्म मक्का में 571 ईसवी में हुआ और वहीं उनको ईश्दौत्य (नबूवत) की प्राप्ति हुई। फिर वे हिजरत करके मदीना चले गए। उन्होंने मूर्ति पूजा के मामले में तो अपनी क़ौम का साथ नहीं दिया, किन्तु अच्छे कामों में उसका भरपूर साथ दिया। संदेष्टा बनाए जाने से पहले से ही वे सद्गुण-सम्पन्न थे और उनकी कौम उन्हें अमीन (विश्वसनीय) कहकर पुकारा करती थी। जब चालीस साल के हुए तो अल्लाह तआला ने उनको अपने संदेशवाहक के रूप में चुन लिया और बड़े-बड़े चमत्कारों से आपका समर्थन किया, जिनमें सबसे बड़ा चमत्कार पवित्र क़ुरआन है। यह क़ुरआन सारे नबियों का सबसे बड़ा चमत्कार है और नबियों के चमत्कारों में से यही एक चमत्कार है, जो आज तक बाक़ी है। फिर जब अल्लाह तआला ने अपने धर्म को पूर्ण और स्थापित कर दिया और उसके रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने उसे पूरी तरह से दुनिया वालों तक पहुँचा दिया, तो 63 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया और मदीने में दफ़नाए गए। पैग़म्बर मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- अल्लाह के अंतिम संदेष्टा थे। अल्लाह तआला ने उनको हिदायत और सच्चा धर्म देकर इसलिए भेजा था कि वे लोगों को मूर्ति पूजा, कुफ्र और मूर्खता के अंधकार से निकाल कर एकेश्वरवाद और ईमान के प्रकाश में ले आएँ। अल्लाह ने गवाही दी है कि उसने उनको अपने आदेश से एक आह्वानकर्ता बनाकर भेजा था।
26. वह शरीयत (धर्म-विधान) जिसे अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- लेकर आए थे, तमाम ईश्वरीय शरीयतों के सिलसिले की अंतिम कड़ी है। यह एक सम्पूर्ण शरीयत है, और इसी में लोगों के धर्म और दुनिया, दोनों की भलाई निहित है। यह इनसानों के धर्म, खून, माल, विवेक और वंश की सुरक्षा को सबसे अधिक प्राथमिकता देती है। इसके आने के बाद, पहले की सारी शरीयतें निरस्त हो गई हैं, जैसा कि पहले आने वाले धर्मों में भी ऐसा ही हुआ कि हर नई शरीयत अपने पहले आने वाली शरीयत को निरस्त कर देती थी।
27. अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के लाए हुए धर्म, इस्लाम के सिवा कोई अन्य धर्म अल्लाह की नज़र में स्वीकार्य नहीं है। इसलिए, जो भी इस्लाम के अलावा कोई अन्य धर्म अपनाएगा, तो वह अल्लाह के यहाँ अस्वीकार्य हो जाएगा।
28. पवित्र क़ुरआन वह किताब है, जिसे अल्लाह तआला ने पैग़म्बर मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- पर वह्य के द्वारा उतारा है। वह निस्संदेह, अल्लाह की अमर वाणी है। अल्लाह तआला ने तमाम इनसानों और जिन्नात को चुनौती दी थी कि वे उस जैसी एक किताब या उसकी किसी सूरा जैसी एक ही सूरा लाकर दिखाएँ। यह चुनौती आज भी अपनी जगह क़ायम है। पवित्र क़ुरआन, ऐसे बहुत सारे महत्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर देता है, जो लाखों लोगों को आश्चर्यचकित कर देते हैं। महान क़ुरआन आज भी उसी अरबी भाषा में सुरक्षित है, जिसमें वह अवतरित हुआ था। उसमें आज तक एक अक्षर की भी कमी-बेशी नहीं हुई है और ना क़यामत तक होगी। वह प्रकाशित होकर पूरी दुनिया में फैला हुआ है। वह एक महान किताब है, जो इस योग्य है कि उसे पढ़ा जाए या उसके अर्थों के अनुवाद को पढ़ा जाए। उसी तरह, अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की सुन्नत, शिक्षाएँ और जीवन-वृतांत भी विश्वसनीय वर्णनकर्ताओं के द्वारा नक़ल होकर सुरक्षित और उसी अरबी भाषा में प्रकाशित हैं, जो अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- बोलते थे और दुनिया की बहुत सारी भाषाओं में अनुवादित भी हैं। यही क़ुरआन एवं सुन्नत, इस्लाम धर्म के आदेश-निर्देशों और विधानों का एक मात्र संदर्भ हैं। इसलिए, इस्लाम धर्म को मुसलमान कहलाने वालों के कर्मों के आलोक में नहीं, अपितु ईश्वरीय प्रकाशना अर्थात क़ुरआन एवं सुन्नत के आधार पर परखकर लिया जाना चाहिए।
29. इस्लाम धर्म, माता-पिता के साथ शिष्टाचार के साथ पेश आने का आदेश देता है, चाहे वे ग़ैर-मुस्लिम ही क्यों ना हों और संतानों के साथ सद्व्यवहार करने की प्रेरणा देता है।
30. इस्लाम धर्म, दुश्मनों के साथ भी कथनी और करनी दोनों में, न्याय करने का आदेश देता है।
31. इस्लाम धर्म, सारी सृष्टियों का भला चाहने का आदेश देता और सदाचरण एवं सद्कर्मों को अपनाने का आह्वान करता है।
32. इस्लाम धर्म, उत्तम आचरणों और सद्गुणों जैसे सच्चाई, अमानत की अदायगी, पाकबाज़ी, लज्जा एवं शर्म, वीरता, भले कामों में खर्च करना, ज़रूरतमंदों की मदद करना, पीड़ितों की सहायता करना, भूखों को खाना खिलाना, पड़ोसी के साथ अच्छा व्यवहार करना, रिश्तों को जोड़ना और जानवरों पर दया करना आदि, को अपनाने का आदेश देता है।
33. इस्लाम धर्म ने खान-पान की पवित्र वस्तुओं को हलाल ठहराया और दिल, शरीर तथा घर-बार को पवित्र रखने का हुक्म दिया है। यही कारण है कि शादी को हलाल क़रार दिया है, जैसा कि रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- ने इन चीज़ों के करने का आदेश दिया है, क्योंकि वे हर पाक और अच्छी चीज़ का हुक्म दिया करते थे।
34. इस्लाम धर्म ने उन तमाम चीज़ों को हराम क़रार दिया है जो अपनी बुनियाद से हराम हैं, जैसे अल्लाह के साथ शिर्क एवं कुफ्र करना, बुतों की पूजा करना, बिना ज्ञान के अल्लाह के बारे में कुछ भी बोलना, अपनी संतानों की हत्या करना, किसी निर्दोष व्यक्ति को जान से मार डालना, धरती पर फ़साद मचाना, जादू करना या कराना, छिप-छिपाकर या खुले-आम गुनाह करना, ज़िना करना, समलैंगिकता आदि जैसे जघन्य पाप करना। उसी प्रकार, इस्लाम धर्म ने सूदी लेन-देन, मुर्दा खाने, जो जानवर बुतों के नाम पर और स्थानों पर बलि चढ़ाया जाए उसका माँस खाने, सुअर के माँस, सारी गंदी चीज़ों का सेवन करने, अनाथ का माल हराम तरीक़े से खाने, नाप-तोल में कमी-बेशी करने और रिश्तों को तोड़ने को हराम ठहराया है और तमाम नबियों और रसूलों का भी इन हराम चीज़ों के हराम होने पर मतैक्य है।
35. इस्लाम धर्म, बुरे आचरणों में लिप्त होने से मना करता है, जैसे झूठ बोलना, दगा और धोखा देना, बेईमानी, फ़रेब, ईर्ष्या, चालबाज़ी, चोरी, अत्याचार और अन्याय आदि, बल्कि वह हर बुरे आचरण से मना करता है।
36. इस्लाम धर्म, उन सभी माली मामलात से मना करता है जो सूद, हानिकारिता, धोखाधड़ी, अत्याचार और गबन पर आधारित हों, या फिर समाजों, खानदानों और विशेष लोगों को तबाही और हानि की ओर ले जाते हों।
37. इस्लाम धर्म, विवेक और सद्बुद्धि की सुरक्षा तथा हर उस चीज़ पर मनाही की मुहर लगाने हेतु आया है जो उसे बिगाड़ सकती है, जैसे शराब पीना आदि। इस्लाम धर्म ने विवेक की शान को ऊँचा उठाया है और उसे ही धार्मिक विधानों पर अमल करने की धुरी क़रार देते हुए, उसे ख़ुराफ़ात और अंधविश्वासों से आज़ाद किया है। इस्लाम में ऐसे रहस्य और विधि-विधान हैं ही नहीं जो किसी खास तबके के साथ खास हों। उसके सारे विधि-विधान और नियम-क़ानून इनसानी विवेक से मेल खाते तथा न्याय एवं हिकमत के अनुसार हैं।
38. यदि असत्य धर्मों के अनुयायी अपने-अपने धर्म और धारणा में पाए जाने वाले अंतर्विरोध और उन चीज़ों की पूरी जानकारी प्राप्त नहीं करेंगे जिनको इनसानी विवेक सिरे से नकारता है तो उनके धर्म-गुरू उन्हें इस भ्रम में डाल देंगे कि धर्म, विवेक से परे है और विवेक के अंदर इतनी क्षमता नहीं है कि वह धर्म को पूरी तरह से समझ सके। दूसरी तरफ़, इस्लाम धर्म अपने विधानों को एक ऐसा प्रकाश मानता है जो विवेक को उसका सटीक रास्ता दिखाता है। वास्तविकता यह है कि असत्य धर्मों के गुरुजन चाहते हैं कि इनसान अपने बुद्धि-विवेक का प्रयोग करना छोड़ दे और उनका अंधा अनुसरण करता रहे, जबकि इस्लाम चाहता है कि वह इनसानी विवेक को जागृत करे ताकि इनसान तमाम चीज़ों की वास्तविकता से उसके असली रूप में अवगत हो सके।
39. इस्लाम सही और लाभकारी ज्ञान को सम्मान देता है, और हवस एवं विलासिता से खाली वैज्ञानिक अनुसंधानों को प्रोत्साहित करता है। वह हमारी अपनी काया और हमारे इर्द-गिर्द फैली हुई असीम कायनात पर चिंतन-मंथन करने का आह्वान करता है। याद रहे कि सही वैज्ञानिक शोध और उनके परिणाम, इस्लामी सिद्धान्तों से कदाचित नहीं टकराते हैं।
40. अल्लाह तआला केवल उसी व्यक्ति के कर्म को ग्रहण करता और उसका पुण्य तथा श्रेय प्रदान करता है जो अल्लाह पर ईमान लाता, केवल उसी का अनुसरण करता और तमाम रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- की पुष्टि करता है। वह सिर्फ उन्हीं इबादतों को स्वीकारता है जिनको स्वयं उसी ने स्वीकृति प्रदान की है। इसलिए, ऐसा भला कैसे हो सकता है कि कोई इनसान अल्लाह से कुफ्र भी करे और फिर उसी से अच्छा प्रतिफल पाने की आशा भी अपने मन में संजोए रखे? अल्लाह तआला उसी शख्स के ईमान को स्वीकार करता है जो समस्त नबियों -अलैहिमुस्सलाम- पर और मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के अंतिम संदेष्टा होने पर भी पूर्ण ईमान रखे।
41. इन सभी ईश्वरीय संदेशों का एक मात्र उद्देश्य यह है कि इनसान सत्य धर्म का पालनकर्ता बनकर, सारे जहानों के पालनहार अल्लाह का शुद्ध बंदा बन जाए और अपने आपको दूसरे इनसान या पदार्थ या फिर ख़ुराफ़ात की अंधभक्ति और बंदगी से मुक्त कर ले, क्योंकि इस्लाम, जैसा कि आप पर विदित है, किसी व्यक्ति विशेष को जन्मजात पवित्र नहीं मानता, ना उसे उसके अधिकार से ऊपर का दर्जा देता है, और ना ही उसे रब और भगवान के पद पर आसीन करता है।
42. अल्लाह तआला ने इस्लाम धर्म में तौबा (प्रायश्चित) का द्वार खुला रखा है। प्रायश्चित यह है कि जब कोई इनसान पाप कर बैठे तो तुरंत अल्लाह से उसके लिए क्षमा माँगे और पाप करना छोड़ दे। जिस प्रकार, इस्लाम क़बूल करने से पहले के सारे पाप धुल जाते हैं, उसी तरह तौबा भी पहले के तमाम गुनाहों को धो देती है। इसलिए, किसी इनसान के सामने अपने पापों को स्वीकार करना ज़रूरी नहीं है।
43. इस्लाम धर्म के दृष्टिकोण से, इनसान और अल्लाह के बीच सीधा संबंध होता है। आपके लिए यह बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं है कि आप अपने और अल्लाह के बीच किसी को माध्यम बनाएँ। इस्लाम इससे मना करता है कि हम अपने ही जैसे दूसरे इनसानों को भगवान बना लें या रबूबिय्यत (पालनहार होने) या उलूहिय्यत (पूज्य होने) में किसी इनसान को अल्लाह का साझी एवं शरीक ठहरा लें।
44. इस पुस्तिका के अंत में हम इस बात का उल्लेख कर देना उचित समझते हैं कि लोग काल, क़ौम और मुल्क के ऐतबार से भिन्न हैं, बल्कि पूरा इनसानी समाज ही अपने सोच-विचार, जीवन के उद्देश्य, वातावरण और कर्म के ऐतबार से टुकड़ों में बटा हुआ है। ऐसे में उसे ज़रूरत है एक ऐसे मार्गदर्शक की जो उसकी रहनुमाई कर सके, एक ऐसे सिस्टम की जो उसे एकजुट कर सके और एक ऐसे शासक की जो उसे पूर्ण सुरक्षा दे सके। नबी और रसूलगण -अलैहिमुस्सलाम- इस दायित्व को अल्लाह तआला की वह्य के आलोक में निभाते थे। वे, लोगों को भलाई और हिदायत का रास्ता दिखाते, अल्लाह के धर्म-विधान पर सबको एकत्र करते और उनके बीच हक के साथ फैसला करते थे, जिससे उनके रसूलों के मार्गदर्शन पर चलने और ईश्वरीय संदेशों से उनके युग के करीब होने के मुताबिक, उनके मामलात सही डगर पर हुआ करते थे। अब अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की रिसालत (ईश्दौत्य) के द्वारा नबियों और रसूलों का सिलसिला समाप्त कर दिया गया है और अल्लाह तआला ने आप -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के लाए हुए धर्म को ही क़यामत तक बाक़ी रखने की घोषणा कर दी है, उसी को लोगों के लिए हिदायत, रहमत, रोशनी और उस संमार्ग का रहनुमा बना दिया है, जो अल्लाह तक पहुँचा सकता है।
45. इसलिए हे मानव! मैं तुमसे विनम्रतापूर्वक आह्वान करता हूँ कि अंधभक्ति और अंधविश्वास को त्याग कर, सच्चे मन और आत्मा के साथ अल्लाह के पथ का पथिक बन जाओ। जान लो कि तुम मरने के बाद, अपने रब ही के पास लौटकर जाने वाले हो। तुम अपनी आत्मा और अपने आस-पास फैले हुए असीम क्षितिजों पर सोच-विचार करने के बाद, इस्लाम क़बूल कर लो। इससे तुम निश्चय ही दुनिया एवं आख़िरत दोनों में सफल हो जाओगे। यदि तुम इस्लाम में दाखिल होना चाहते हो तो तुम्हें बस इस बात की गवाही देनी है कि अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं और मुहम्मद अल्लाह के अंतिम संदेष्टा हैं, फिर अल्लाह के सिवा जिन चीज़ों को तुम पूजा करते थे, उन सबका इनकार कर दो, इस बात पर ईमान लाओ कि अल्लाह तआला सबको क़ब्रों से ज़िंदा करके उठाएगा और इस बात पर भी ईमान ले आओ कि कर्मों का हिसाब-किताब और उनके अनुरूप श्रेय और बदला दिया जाना हक और सच है। जब तुम इन बातों की गवाही दे दोगे, तो मुसलमान बन जाओगे। उसके बाद तुम्हारे लिए ज़रूरी हो जाएगा कि तुम अल्लाह के निर्धारित किए हुए विधि-विधान के मुताबिक नमाज़ पढ़ो, ज़कात दो, रोज़ा रखो और यदि सफर-खर्च जुटा सको तो हज करो।
दिनांक 19-11-1441 की प्रति
इसे डॉक्टर मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह अस-सुह़ैम ने लिखा है।
भूतपूर्व प्रोफेसर इस्लामी अध्ययन अनुभाग
प्रशिक्षण महाविद्यालय किंग सऊद विश्वविद्यालय
रियाज़, सऊदी अरब