Description
यह एक संक्षिप्त पुस्तिका है। इसमें तौह़ीद के उन मसायल एवं इस्लाम के मूल सिद्धान्तों का वर्णन है, जिनका सीखना तथा उन में विश्वास रखना हर मुसलमान पर अनिवार्य है। मालूम रहे कि इस पुस्तिका में वर्णित सारे मसायल (العقائد للأئمة الأربعة) "चारों इमामों के अक़़ीदे " की पुस्तकों से लिये गये हैं। अर्थात इमाम अबू ह़नीफ़ा, इमाम मालिक, इमाम शाफ़िई, इमाम अह़मद बिन ह़म्बल और उनके ऐसे अनुसरण करने वाले, जो हर प्रकार के मतभेद से बचते हुए अहले-सुन्नत वल-जमाअत के मार्ग पर चलते रहे।
अन्य अनुवाद 12
Topics
(इमाम अबू ह़नीफ़ा, इमाम मालिक, इमाम शाफिई और इमाम अहमद बिन ह़म्बल रह़िमहुमुल्लाह)
संकलनकर्ता : उलमा का एक समूह
प्रस्तावना : फ़ज़ीलतुश-शैख़ सलाह़ बिन मुह़म्मद अल्-बुदैर
अनुवाद और समीक्षा :
रुव्वाद अनुवाद केंद्र
सारी प्रशंसाएं अल्लाह के लिए हैं, जिसने अटल निर्णय किये, हलाल एवं हराम बताये, ज्ञान प्रदान किया और अपने दीन (धर्म) की समझ दी। मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई पूज्य (माबूद) नहीं, वह एकमात्र है, उसका कोई शरीक नहीं। उसने अपनी पायदार पुस्तक द्वारा इस्लाम के मूल सिद्धान्तों को विस्तार पूर्वक बयान किया। जो वास्तव में सारे समुदायों के लिए मार्गदर्शन है। मैं गवाही देता हूँ कि हमारे नबी मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के भक्त और उसके रसूल (ईशदूत) हैं, जिन्हें अरब एवं अजम (गैर-अरब) समेत सारे संसार वालों के लिए तौह़ीद (एकेश्वरवाद) पर आधारित धर्म एवं ऐसी शरीअत के साथ भेजा गया था, जिसमें सारे लोगों का हार्दिक स्वागत है। अतः आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम निरन्तर उसकी दावत देते रहे और अटल तर्कों द्वारा उसका बचाव एवं रक्षा करते रहे। अल्लाह की कृपा और शान्ति अवतरित हो उनपर तथा उस मार्ग पर चलने वाले उनके साथियों एवं इस समूह से संबंध रखने वाले तमाम लोगों पर। अम्मा बअ्द (तत्पश्चात्):
मुझे "चार इमामों का अक़ीदा" नामी इस पूस्तक को देखने का अवसर मिला, जिसे उलमा के एक समूह ने संकलित किया है। मैंने इसे सह़ीह़ अक़ीदे के मसायल की व्याख्या करने वाली तथा क़ुर्आन व सुन्नत पर आधारित सलफ़ी मन्हज (पद्धति) को स्पष्ट करने वाली पुस्तक पाया। विषय वस्तु एवं इसमें वर्णित मसायल के महत्व को देखते हुए मैं इसके मुद्रण एवं प्रकाशन की अनुशंसा करता हूँ। साथ ही अल्लाह से विनती करता हूँ कि इसे पाठकों के लिए लाभदायक बनाये और संकलनकर्ताओं को बेहतर बदल प्रदान करे। अल्लाह की करुणा एवं शान्ति हो हमारे संदेष्टा मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तथा आपके तमाम परिजनों और साथियों पर।
इमाम तथा प्रवचनकार, मस्जिदे नबवी
एवं न्यायधीश सामान्य न्यायालय, मदीना मुनव्वरा
फ़ज़ीलतुश-शैख़ सलाह़ बिन मुह़म्मद अल्-बुदैर
अल्लाह की करुणा एवं शान्ति हो हमारे संदेष्टा मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तथा आपके तमाम परिजनों और साथियों पर l अम्मा बअ्द (तत्पश्चात):
यह एक संक्षिप्त पुस्तिका है। इसमें तौह़ीद के उन मसायल एवं इस्लाम के मूल सिद्धान्तों का वर्णन है, जिनका सीखना तथा उन में विश्वास रखना हर मुसलमान पर अनिवार्य है। मालूम रहे कि इस पुस्तिका में वर्णित सारे मसायल चारों इमामों के अक़़ीदे की पुस्तकों से लिये गये हैं।
अर्थात इमाम अबू ह़नीफ़ा, इमाम मालिक, इमाम शाफ़िई, इमाम अह़मद बिन ह़म्बल और उनके ऐसे अनुसरण करने वाले, जो हर प्रकार के मतभेद से बचते हुए अहले-सुन्नत वल-जमाअत के मार्ग पर चलते रहे। जैसे अल्-फ़िक़्हुल अक्बर; इमाम अबू ह़नीफ़ा रहिमहुल्लाह (मृत्यु 150 हिज्री), अल्-अक़ीदा अत्-तह़ावीया; इमाम तह़ावी (मृत्यु 321 हिज्री), मुक़द्दमतुर- रिसाला; इब्ने अबी ज़ैद क़ीरवानी मालिकी (मृत्यु 386 हिज्री), उसूलुस्-सुन्नह; इब्ने अबी ज़मनीन मालिकी (मृत्यु 399 हिज्री), अत्-तम्हीद शर्हुल मुअत्ता; इब्ने अब्दुल बर्र मालिकी (मृत्यु 463 हिज्री), अर्-रिसाला फी इतिक़ादि अह्लिल्-ह़दीस; साबूनी शाफ़िई (मृत्यु 449 हिज्री), शर्हुस्-सुन्नह; इमाम शाफ़िई के शिष्य मुज़नी (मृत्यु 264 हिज्री), उसूलुस्-सुन्नह; इमाम अह़मद बिन ह़म्बल (मृत्यु 241 हिज्री), अस्-सुन्नह; अब्दुल्लाह बिन अहमद बिन हम्बल (मृत्यु 290 हिज्री), अस्-सुन्नह; ख़ल्लाल ह़म्बली (मृत्यु 311 हिज्री, अल्-बिद्उ वन्-नहयु अन्हा; इब्ने वज़्ज़ाह़ उन्दलुसी (मृत्यु 287 हिज्री), अल्-ह़वादिस वल्-बिद्अ; अबु बक्र तरतूशी मालिकी (मृत्यु 520 हिज्री), अल्-बाइस अला इन्कार अल्-बिद्इ वल्-ह़वादिस; अबू शामा मक़्दिसी शाफ़िई (मृत्यु 665 हिज्री), आदि इस्लामी सिद्धान्तों एवं ऐतिक़ाद की पुस्तकें, जिन्हें चारों इमामों और उनके अनुसरणकारियों ने लिखा है, ताकि सत्य की ओर दावत, सुन्नत एवं अक़ीदे की रक्षा और धर्म के नाम पर वजूद में आने वाली नित-नयी तथा असत्य चीज़ों का खंडन किया जासके।
प्रिय बन्धु, यदि आप इनमें से किसी इमाम के अनुसरणकारी हैं, तो लीजिए, ये आपके इमाम का अक़ीदा है, अह़्काम की तरह अक़ीदे के मामले में भी आप उन्हीं के पद्चिन्हों पर चलना आरंभ कर दीजिए।
मालूमात को पहुँचाना आसान हो और उन्हें आत्मसात किया जा सके, इस बात को ध्यान में रखते हुए, इस पुस्तिका को प्रश्नोत्तर के रूप में संकलित किया गया है।
प्रार्थना है कि अल्लाह तआला सभी को सत्य को ग्रहण करने, सच्चे दिल से उसे मानने और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अनुसरण करने की शक्ति प्रदान करे।
अल्लाह की कृपा एवं शान्ति हो हमारे संदेष्टा मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, आपके परिजनों और साथियों पर।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः मेरा रब (पालनहार) अल्लाह है। जो स्वामी है, उत्पन्न करने वाला है, संचालक है, रूप-रेखा बनाने वाला है, पालने वाला है, अपने भक्तों के काम बनाने वाला है और उनके समस्सेयाओं का समाधान करने वाला है। प्रत्येक वस्तु उसके आदेश से अस्तित्व में आती है और कोई पत्ता भी उसके आदेश के बिना नहीं हिलता।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः मैंने अपने रब (पालनहार) को जाना; क्योंकि उसकी जानकारी तथा उसके अस्तित्व, सम्मान और भय के स्वाभाविक इक़रार को मेरे जन्म के समय ही मेरे अन्दर डाल दिया गया था तथा उसकी निशानियों एवं सृष्टियों पर चिन्तन-मनन से भी उसे जानने में बड़ी मदद मिली। जैसा कि अल्लाह तआला ने फ़रमयाः"وَمِنْ آَيَاتِهِ اللَّيْلُ وَالنَّهَارُ وَالشَّمْسُ وَالْقَمَرُ " {उसकी निशानियों में से रात, दिन, सूरज और चाँद हैं।} (सूरा फ़ुस्सिलत) इस सूक्ष्म तथा सुन्दर व्यवस्था के तहत चलने वाली संसार की ये विशाल चीज़ें, अपने आप अस्तित्व में नहीं आ सकतीं। इनका कोई उत्पत्तिकार ज़रूर होगा, जिसने इन्हें अनस्तित्व से अस्तित्व बख़्शा है। ये सारी वस्तुएं एक उत्पत्तिकार के वजूद के निर्णायक प्रमाण हैं, जो सर्वशक्तिमान, महान और हिकमत वाला है। सच्चाई भी यही है कि चंद नास्तिकों को छोड़कर सारा मानव समाज अपने पैदा करने वाले, प्रभु, अन्न दाता और संचालनकर्ता का इक़रार भी करता है। अल्लाह की पैदा की हुई वस्तुओं में से सात आकाश, सात धरती तथा उनमें प्रयाप्त समस्त वस्तुएँ हैं, जिनकी संख्या, वास्तविकता और हालात से अल्लाह ही अवगत है तथा उन्हें आवश्यकता की सारी वस्तुएं एवं जीविका भी वही देता है, जो जीवित है, सारे संसार को सम्भालने वाला है, अन्न दाता और महान है। अल्लाह तआला ने फ़रमयाः "إِنَّ رَبَّكُمُ اللَّهُ الَّذِي خَلَقَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ فِي سِتَّةِ أَيَّامٍ ثُمَّ اسْتَوَى عَلَى الْعَرْشِ يُغْشِي اللَّيْلَ النَّهَارَ يَطْلُبُهُ حَثِيثًا وَالشَّمْسَ وَالْقَمَرَ وَالنُّجُومَ مُسَخَّرَاتٍ بِأَمْرِهِ أَلَا لَهُ الْخَلْقُ وَالْأَمْرُ تَبَارَكَ اللَّهُ رَبُّ الْعَالَمِينَ " {अर्थात: तूम्हारा पालनहार अल्लाह है, जिसने आकाश तथा पृथ्वी को छः दिनों में उत्पन्न किया, फिर अर्श पर स्थिर हो गया। जो रात को दिन पर ढाँप देता है, फिर दिन रात के पीछे दौड़ा चला आता है। जिसने सुर्य, चाँद और नक्षत्र पैदा किये, सब उसके आदेश के अधीन हैं। सावधान रहो, उसी की सृष्टि है और उसी का आदेश। बड़ा बरकत वाला है अल्लाह, सारे संसारों का स्वामी और पालनहार।} (अल्-आराफ़ः 54)
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः मेरा धर्म इस्लाम है। विदित हो कि इस्लाम, तौहीद (एकेश्वरवाद) के ज़रिये अल्लाह के आगे आत्म समर्पण, सत्कर्म के ज़रिये उसकी आज्ञाकारी और शिर्क (अनेकेश्वरवाद) तथा शिर्क करने वालों से ख़ुद को अलग-थलग कर लेने का नाम है। अल्लाह तआला ने फरमायाः "إِنَّ الدِّينَ عِنْدَ اللَّهِ الْإِسْلَامُ" {अर्थात : अल्लाह के निकट ग्रहण योग्य धर्म केवल इस्लाम है।} (सूरा आले इम्रानः 19) एक अन्य स्थान पर फरमायाः "وَمَنْ يَبْتَغِ غَيْرَ الْإِسْلَامِ دِينًا فَلَنْ يُقْبَلَ مِنْهُ وَهُوَ فِي الْآَخِرَةِ مِنَ الْخَاسِرِينَ" अर्थात : {जो, इस्लाम के अतिरिक्त कोई अन्य धर्म तलाश करेगा, उसकी ओर से उसे स्वीकार नहीं किया जायेगा और वह प्रलोक में हानि उठाने वालों में से होगा।} (सूरा आले इम्रानः 85) चुनांचे अल्लाह उस धर्म के अतिरिक्त कोइ अन्य धर्म स्वीकार नहीं करेगा, जिसे अपने हमारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ भेजा है। क्योंकि उसने पिछली समस्त शरीअतों को निरस्त कर दिया है। अतः इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म की अनुसरण करने वाला सीधी राह से भटका हुआ है तथा प्रलोक में हानि उठाने वालों और नरक में प्रवेश पाने वालों में शामिल होगा। जबकि जहन्नम (नरक ) सब से अधिक बुरा ठेकाना है।
उत्तर/ तो आप कहिए: ईमान के छः स्तंभ हैं। और वो हैं: अल्लाह, उसके फ़रिश्तों, उसकी उतारी हुई ग्रंथों, उसके पैगम्बरों तथा प्रलय दिवस पर ईमान रखना तथा इस बात पर ईमान रखना कि भाग्य का भला बुरा केवल अल्लाह की ओर से है।
और किसी व्यक्ति का ईमान उस समय तक संपूर्ण नहीं हो सकता, जब तक वो इन सभी बातों पर, उसी प्रकार से विश्वास न करे, जिस प्रकार से अल्लह की किताब क़ुरआन और प्यारे नबी की हदीस में आदेश हुआ है। इनमें से एक का इन्कार करने वाला भी ईमान के सीमा से बाहर हो जाता है। इसका प्रमाण अल्लाह तआला का ये फरमान है : "لَيْسَ الْبِرَّ أَنْ تُوَلُّوا وُجُوهَكُمْ قِبَلَ الْمَشْرِقِ وَالْمَغْرِبِ وَلَكِنَّ الْبِرَّ مَنْ آَمَنَ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآَخِرِ وَالْمَلَائِكَةِ وَالْكِتَابِ وَالنَّبِيِّينَ وَآَتَى الْمَالَ عَلَى حُبِّهِ ذَوِي الْقُرْبَى وَالْيَتَامَى وَالْمَسَاكِينَ وَابْنَ السَّبِيلِ وَالسَّائِلِينَ وَفِي الرِّقَابِ وَأَقَامَ الصَّلَاةَ وَآَتَى الزَّكَاةَ وَالْمُوفُونَ بِعَهْدِهِمْ إِذَا عَاهَدُوا وَالصَّابِرِينَ فِي الْبَأْسَاءِ وَالضَّرَّاءِ وَحِينَ الْبَأْسِ أُولَئِكَ الَّذِينَ صَدَقُوا وَأُولَئِكَ هُمُ الْمُتَّقُونَ" {अर्थात : नेकी (पुण्य) ये नहीं कि तुम अपने चेहरे पूर्व और पश्चिम की ओर कर लो, अपितु नेकी यह है की मनुष्य ईमान लाये अल्लाह पर और अन्तिम दिन (प्रलय दिवस ) पर और फ़रिश्तों पर और आकशीय गर्न्थों पर और पैग़म्बरों पर। और धन की मुहब्बत के बावजूद दान करे सम्बन्धियों को और अनाथों को और मुहताजों को और यात्रियों को और माँगने वालों को और गरदन छुड़ाने (ग़ुलाम मुक्त करने ) में। और नमाज़ स्थापित करे और ज़कात अदा करे और जब वचन दे दे तो उसको पूरा करे। और सब्र (धैर्य) करे कठिनाई में और विपत्ति एवं कष्ट में और युद्ध के समय। यही लोग हैं, जो सच्चे निकले और यही हैं डर रखने वाले।} (सूरा अल-बक़रा: 177) और अल्लाह के प्रिय संदेष्टा ﷺ की हदीस है, जब आपसे ईमान के विषय में पूछा गया, तो आप ﷺ ने कहा: (ईमान का अर्थ ये है कि तुम विश्वास रखो अल्लाह पर, उसके फ़रिश्तों पर, उसके ग्रंथों पर, उसके पैगम्बरों पर, अंतिम दिवस पर और भाग्य के भले-बुरे पर।) इस हदीस को इमाम मुसलिम ने बयान किया है।
उत्तर\ तो आप कहिए: अल्लाह पर ईमान लाने का अर्थ है: अल्लाह के अस्तित्व को स्वीकार करना, उसपर विश्वास रखना, उसीको एकमात्र रब एवं पूज्य मानना और उसके नामों और गुणों को शिर्क से बचाये रखान।
उत्तर/ तो आप कहिए: फ़रिश्तों पर ईमान अर्थात फ़रिश्तों के अस्तित्व, उनकी विशेषताओं, उनकी क्षमताओं, उनके कार्यों और उनकी ज़िम्मेवारियों पर विश्वास रखना और ये आस्था रखना कि फ़रिश्ते अल्लाह की सृष्टि और बहुत पवित्र एवं सम्मान योग्य हैं। अल्लाह ने उन्हें प्रकाश से उत्पन्न किया है। अल्लाह तआला कहता हैः
"لَا يَعْصُونَ اللَّهَ مَا أَمَرَهُمْ وَيَفْعَلُونَ مَا يُؤْمَرُونَ" {अर्थातः अल्लाह उनको जो आदेश दे, उसमें वे उसकी अवज्ञा नहीं करते और वे वही करते हैं, जिसका उनको आदेश मिलता है।} (सूरा तहरीम: 6) और उनके दो-दो, तीन-तीन, चार-चार या इससे भी अधिक पंख होते हैं। वे बहुत बड़ी संख्या में हैं। उन की संख्या का ज्ञान अल्लाह के अतिरिक्त किसी अन्य को नहीं। अल्लाह ने उन्हें बहुत-से महत्वपूर्ण कार्य सौंप रखे हैं। कुछ फरिश्ते अल्लाह के अर्श (सिंहासन) को उठाये हुए हैं। कुछ मां के गर्भ की देख भाल पर हैं। कुछ मनुष्य के कार्यों की निगरानी में हैं। कुछ अल्लाह के भक्तों की रक्षा में लगे हैं। कुछ नरक की देख-भाल पर हैं तो कुछ जन्नत की देख-रेख पर। इसके अलावा बहुत-से कार्य हैं, जो फ़रिश्ते नरक पर नियुक्त हैं। फ़रिश्तों में सबसे उत्तम जिबरील हैं, जो अल्लाह के आदेश अौर वाणी आदि लेकर पैगम्बरों के पास आते थे। हम सभी फ़रिश्तों पर ईमान रखते हैं, उनके बारे संक्षिप्त एवं विस्तृत विवरण समेत उनपर उसी प्रकार विश्वास रखते हैं जैसे अल्लाह ने अपने पवित्र ग्रंथ क़ुरआन में एवं अपने रसूल ﷺ की हदीस में बयान किया है। जो व्यक्ति फ़रिश्तों को नहीं मानता या फ़रिश्तों के संबंध में ऐसी कोई धारणा रखता है, जो अल्लाह की बतायी हुई उपदेशों के विपरीत है, वो अल्लाह अौर उसके रसूल ﷺ की बातों को झुठलाने के कारण काफ़िर है।
उत्तर/ तो आप कहिएः अल्लाह की औतरित की हुई ग्रंथों पर ईमान का अर्थ है, कि आपका विश्वास हो और आप स्वीकार करें की अल्लाह ने अपने संदेष्टाओं और इश्दूतों पर कुछ ग्रन्थें औतरित की हैं। कुछ ग्रंथों के संबंध में अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन में बताया है, जैसे इब्राहीम अलैहिस्सलाम के सह़ीफ़े उनपर उतारे गये, तौरात मूसा अलैहिस्सलाम को दी गयी , इंजील ईसा अलैहिस्सलाम को मिली, ज़बूर दाउद अलैहिस्सलाम पर उतरी और कुरआन अंतिम संदेष्टा मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को प्रदान किया गया।
सबसे श्रेष्ठ ग्रंथ क़ुरआन है। ये अल्लाह की पवित्र वाणी और वार्ता है, जिसे अल्लाह ने स्वयं कहा है। इसके शब्द और अर्थ भी अल्लाह की ओर से हैं, जिसे जिब्रील ने अंतिम संदेष्टा को सुनाया और अन्य लोगों तक पहुँचाने का आदेश दिया। अल्लाह ने कहाः "نَزَلَ بِهِ الرُّوحُ الْأَمِينُ"{अर्थात: इसे अमानतदार विश्वसनीय फ़रिश्ता लेकर उतरा है।} (सूरा अश्-शुअरा:193) अल्लाह ने एक अन्य स्थान पर कहाः "إِنَّا نَحْنُ نَزَّلْنَا عَلَيْكَ الْقُرْآَنَ تَنْزِيلًا" {हमने तुमपर क़ुरआन थोड़ा थोड़ा करके औतरित किया है।} (सूरा अद्-दह्र: 23) और एक स्थान पर कहता हैः "فَأَجِرْهُ حَتَّى يَسْمَعَ كَلَامَ اللَّهِ" {अर्थात: तो तुम उसको शरण दे दो, ताकि वह अल्लाह का कलाम (वचन) सुन सके।} (सूरा अत्-तौबा: 6)
अल्लाह ने उसे किसी भी प्रकार के हेर-फेर और कमी-बेशी से सुरक्षित रखा है। इस किताब की एक विशेषता यह है कि यह लिखित रूप में और लोगों के सीनों में सुरक्षित रहेगी, यहाँ तक कि प्रलय से पहले, अल्लाह तआला ईमान वालों की आत्माओं को निकाल लेगा। इसके साथ ही उसे भी उठा लिया जायेगा।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः पूर्ण विश्वास रखिए कि वे इन्सान हैं, मानव जाति में से चुने हुए लोग हैं, अल्लाह ने उन्हें अपने धर्म को बन्दों तक पहुँचाने के लिए चुन लिया है। अतः वे लोगों को एक अल्लाह की वंदना और शिर्क एवं मुश्रिकों से छुटकारा प्राप्त करने की ओर बुलाते हैं। नबूअत वास्तव में अल्लाह की ओर से एक चयन है, जिसे परिश्रम, अधिक से अधिक उपासना, परहेज़गारी और प्रवीनता द्वारा प्राप्ता नहीं किया जा सकता। अल्लाह तआला ने फ़रमायाः "اللَّهُ أَعْلَمُ حَيْثُ يَجْعَلُ رِسَالَتَهُ" {अर्थात : अल्लाह अधिक जानता है कि उसे अपना रसूल किसे बनाना है।} (सूरा अल्-अन्आमः 124)
प्रथम संदेष्टा आदम अलैहिस्सलाम और प्रथम दूत नूह़ अलैहिस्सलाम हैं। जबकि अन्तिम तथा श्रेष्ठ संदेष्टा एवं दूत मह़म्मद पुत्र अब्दुल्लाह क़ुरैशी, हाशिमी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हैं। जिसने किसी संदेष्टा का इन्कार किया, वो काफ़िर हो गया तथा जिसने मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के बाद नबूअत का दावा किया, वो काफ़िर एवं अल्लाह को झुठलाने वाला है। जैसा कि अल्लाह तआला ने फ़रमायाः "ما كَانَ مُحَمَّدٌ أَبَا أَحَدٍ مِنْ رِجَالِكُمْ وَلَكِنْ رَسُولَ اللَّهِ وَخَاتَمَ النَّبِيِّينَ" {अर्थात : मुह़म्मद तुम्हारों पुरुषों में से किसी के पिता नहीं हैं, किन्तु अल्लाह के रसूल एवं अन्तिम नबी हैं।} और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः(ولا نبي بعدي) (अर्थात: मेरे बाद कोई संदेष्टा नहीं होगा)
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः अन्तिम दिवस पर ईमान लाने का अर्थ यह है कि उन तमाम वस्तुओं की पूर्ण पुष्टि, संदेह रहित विश्वास और इक़रार, जिनके मृत्यु के बाद होने की सूचना अल्लाह तआला ने दी है। जैसे- क़ब्र में प्रश्न, उसकी नेमत और अज़ाब, मृत्यु के बाद पुनः जीवित होना, कर्मों के ह़िसाब और फ़ैसले के लिए लोगों का इकट्ठा होना तथा प्रलय के मैदान के विभिन्न हालात, जैसे- लम्बे समय तक खड़े रहना, एक मील की दूरी तक सूर्य का नीचे आ जाना, ह़ौज, मीज़ान, कर्म पत्र, जहन्नम के ऊपर रास्ता बनाना आदि उस दिन की भयानक अवस्थाएं, जो उस समय तक जारी रहेंगी, जब तक जहन्नम के ह़क़दार जहन्नम और जन्नत के हक़दार जन्नत में प्रवेश न कर जायें। जैसा कि विस्तारित रूप से अल्लाह की किताब और रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की ह़दीस में आया है। अन्तिम दिवस पर ईमान में प्रलय की उन निशानियों पर पूर्ण विश्वास भी शामिल है, जो क़ुर्आन तथा ह़दीस से साबित हैं, जैसे- असंख्य फ़ितनों का सामने आना, हत्याएं, भूकम्प, सूर्य एवं चंद्रमा ग्रहण, दज्जाल का निकलना, ईसा अलैहिस्सलाम का उतरना, याजूज और माजूज का निकलना एवं पश्चिम से सूर्य का निकलना आदि।
ये सारी चीज़ें अल्लाह की किताब और उसके रसूल की सहीह हदीसों से सिद्ध हैं, जो सह़ीह़, सुनन एवं मुसनद आदि पुस्तकों में मौजूद हैं।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः हाँ, अल्लाह तआला ने फ़िरऔन और उसके अनुसरणकारियों के बारे में फ़रमायाः "النَّارُ يُعْرَضُونَ عَلَيْهَا غُدُوًّا وَعَشِيًّا وَيَوْمَ تَقُومُ السَّاعَةُ أَدْخِلُوا آَلَ فِرْعَوْنَ أَشَدَّ الْعَذَابِ" {अर्थात: नरक को उनके सामने प्रातः-संध्या लाया जायेगा और जिस दिन प्रलय घटित होगी (कहा जायेगाः) फ़िरऔनयों को कठोरतम यातना में डाल दो।} (सूरा ग़ाफ़िरः 46) तथा अल्लाह तआला ने फ़रमायाः "وَلَوْ تَرَى إِذْ يَتَوَفَّى الَّذِينَ كَفَرُوا الْمَلَائِكَةُ يَضْرِبُونَ وُجُوهَهُمْ وَأَدْبَارَهُمْ وَذُوقُوا عَذَابَ الْحَرِيقِ" {अर्थात: और काश कि तू देखता जबकि फ़रिश्ते काफ़िरों की जान निकालते हैं, उनके मुँह और कमर पर मार मारते हैं (और कहते हैं) तुम जलने की यातना चखो।} अल्लाह तआला ने अन्य स्थान में फ़रमयाः "يُثَبِّتُ اللَّهُ الَّذِينَ آَمَنُوا بِالْقَوْلِ الثَّابِتِ فِي الْحَيَاةِ الدُّنْيَا وَفِي الْآَخِرَةِ" {अर्थात: अल्लाह ईमान वालों को दृढ़ कथन के ज़रिये सांसारिक जीवन और प्रलय में दृढ़ता प्रदान करता है।} (सूरा इबराहीमः 27) तथा बरा बिन आज़िब रज़ियल्लाहु अन्हु की एक हदीसे क़ुदसी में हैः (तो आसमान से एक पुकारने वाला पुकारेगाः मेरे बन्दे ने सत्य कहा है। उसके लिए जन्नत (स्वर्ग) के बिछौने बिछा दो, उसे जन्नत के वस्त्र पहना दो और उसके लिए जन्नत की ओर एक दरवाज़ा खोल दो, ताकि उसे जन्नत की हवा और सुगंध मिलती रहे। उसकी क़ब्र को हद्दे निगाह तक फैला दिया जायेगा। फिर काफ़िर की मृत्यु का ज़िक्र करते हुए फ़रमायाः फिर उसकी आत्मा को उसके शरीर में लौटाया जायेगा, उसके पास दो फ़रिश्ते आयेंगे, उसे बठायेंगे और कहेंगेः तेरा रब कौन है? वो उत्तर देगाः मुझे कुछ पता नहीं। वे दोनों कहेंगेः तेरा धर्म क्या है? वो कहेगाः मुझे कुछ पता नहीं। फिर वे कहेंगेः ये आदमी कौन है, जो तुम्हारे बीच (संदेष्टा बना कर) भेजा गया था? वो कहेगाः मुझे कुछ पता नहीं। तो आकाश से एक पुकारने वाला पुकारेगाः इसने झूठ कहा है। इसके लिए दोज़ख़ (नरक) के बिछौने बिछा दो, इसे दोज़ख़ के वस्त्र पहना दो और इसके लिए दोज़ख़ की ओर एक दरवाज़ा खोल दो। ताकि उसकी गर्मी और गर्म हवा आती रहे। उसकी क़ब्र को इस क़दर तंग कर दिया जायेगा कि उसकी एक तरफ की पसलियाँ दूसरी तरफ़ आ जायेंगीं।) एक रिवायत में यह भी हैः (फिर उसके लिए एक अन्धे-गूंगे फ़रिश्ते को नियुक्त कर दिया जायेगा, उसके पास एक लोहे का हथोड़ा होगा कि यदि उसे पहाड़ पर मार दिया जाय तो वो मिट्टी बन जाय। वो उस हथोड़े से उसे ऐसे मारेगा कि उसकी आवाज़ जिन्न तथा इन्सानों के छोड़ पूर्व तथा पश्चिम के बीच की सारी चीज़ें सुनेंगी।) इस हदीस को अबू दाऊद ने रिवायत किया है। यही कारण है कि हमें हर नमाज़ में क़ब्र के अज़ाब से पनाह मांगने का आदेश दिया गया है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः हाँ, ईमान वाले प्रलोक में अपने रब को देखेंगे। इसके कुछ प्रमाण प्रस्तुत हैं। अल्लाह तआला ने फरमयाः "وُجُوهٌ يَوْمَئِذٍ نَاضِرَةٌ ، إِلَى رَبِّهَا نَاظِرَةٌ" {अर्थात: उस दिन कुछ चेहरे हरे-भरे होंगे। अपने रब को देख रहे होंगे।} (सूरा अल्-क़ियामाः 22-23) तथा अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः "إنكم ترون ربكم" अर्थात: (तुम अपने रब को देखोगे।) इसे बुखारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है। ईमान वालों के अपने रब को देखने के सम्बन्ध में हदीसें मुतवातिर सनदों से आई हैं तथा इसपर सारे सहाबा और ताबेईन एकमत हैं। जिसने इस दर्शन को झुठलाया, उसने अल्लाह तथा उसके रसूल से दुश्मनी की तथा सह़ाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम और उनका अनुसरण करने वाले मुसलमानों का विरोध किया। अल्बत्ता, इस लोक (दुनिया) में अल्लाह को देखना सम्भव नहीं है। क्योंकि अल्लाह के रसूल सल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः "إنكم لن تروا ربكم حتى تموتوا" (अर्थात : तुम मरने से पहले अपने रब को कदापि देख नहीं सकते।) और जब मूसा अलैहिस्सलाम ने दुनिया में अल्लाह को देखने की इच्छा व्यक्त की थी, तो अल्लाह ने मना कर दिया था। जैसा कि इस आयत में हैः "وَلَمَّا جَاءَ مُوسَى لِمِيقَاتِنَا وَكَلَّمَهُ رَبُّهُ قَالَ رَبِّ أَرِنِي أَنْظُرْ إِلَيْكَ قَالَ لَنْ تَرَانِي" {अर्थात : और जब मूसा हमारे निश्चित समय पर पहुँचा और उसके रब ने उससे बातचीत की, तो उसने प्रार्थना की कि ऐ मेरे रब, मुझे देखने की शक्ति दे कि मैं तुझे देखूँ। तो उसने कहाः तू मुझे नहीं देख सकता।} (सूरा आराफ़ः 143)
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः इस बात पर पूर्ण विश्वास द्वारा कि प्रत्येक वस्तु अल्लाह के निर्णय और उसके अनुमान के अनुसार होती है। कोई वस्तु उसकी इच्छा के बिना नहीं होती। वो बन्दों के भले-बुरे सारे कार्यों का पैदा करने वाला है। उसने बन्दों को भलाई तथा सत्य को स्वीकार करने की शक्ति देकर उत्पन्न किया है तथा भले-बुरे में अन्तर करने की क्षमता प्रदान की है। उन्हें किसी काम को करने अथवा न करने की इच्छाशक्ति प्रदान की है। सत्य को स्पष्ट कर दिया है तथा असत्य से सावधान किया है। जिसे चाहा, अपने अनुग्रह से सुपथ प्रदान किया और जिसे चाहा, अपने न्याय के आधार पर कुपथ किया। वो तत्त्व ज्ञान, ज्ञानी और कृपावान है। उसे उसके कार्यों के बारे में नहीं पूछा जायेगा, जबकि बन्दे पूछे जायेंगे।
तक़्दीर की चार श्रेणियाँ हैं, और वे हैं:
प्रथम श्रेणीः ये विश्वास रखना कि अल्लाह का ज्ञान हर वस्तु को इस तरह घेरे हुए है कि वह हर उस विषय को जानता है, जो हो चुका है और जो नहीं हुआ है, यदि वो होता, तो कैसे होता।
दूसरी श्रेणीः ये विश्वास रखना कि अल्लाह ने प्रत्येक वस्तु को लिख रखा है।
तीसरी श्रेणी: ये विश्वास रखना कि कोई भी वस्तु अल्लाह की इच्छा और अनुमति के बिना नहीं हो सकती।
चौथी श्रेणी: ये विश्वास रखनाः कि अल्लाह ही प्रत्येक वस्तु को उत्पन्न करने वाला है। अर्थात वह व्यक्तियों तथा आकाशों एवं धरती में मौजूद समस्त वस्तुओं के कार्यों, कथनों, गतियों, ठहराव एवं गुणों को उत्पन्न करने वाला है। इन सारी वस्तुओं की दलील क़ुर्आन एवं सुन्नत में भारी मात्रा में मौजूद हैं।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः सामान्य रूप से न यह कहा जायेगा कि मनुष्य विवश है और न यह कहा जायेगा कि उसे अख़्तियार प्राप्त है। ये दोनों बातें गलत हैं। क़ुर्आन एवं ह़दीस से ज्ञात होता है कि मनुष्य इरादा और इच्छा का मालिक है और वास्तव में अपना कार्य खुद करता है। लेकिन ये सब कुछ अल्लाह के इरादे और इच्छा से बाहर नहीं होता। इसे अल्लाह तआला के इस कथन ने स्पष्ट कर दिया हैः "لِمَنْ شَاءَ مِنْكُمْ أَنْ يَسْتَقِيمَ ، وَمَا تَشَاءُونَ إِلَّا أَنْ يَشَاءَ اللَّهُ رَبُّ الْعَالَمِين" {अर्थात: (खास तौर से उनके लिए) जो तुममें से सीधे रास्ते पर चलना चाहे। और तुम बिना सारी दुनिया के रब के चाहे कुछ नहीं चाह सकते।} (सूरा अत्-तकवीरः 28-29) तथा अल्लाह तआला ने अन्य स्थान में फ़रमायाः"فَمَنْ شَاءَ ذَكَرَهُ (55) وَمَا يَذْكُرُونَ إِلَّا أَنْ يَشَاءَ اللَّهُ هُوَ أَهْلُ التَّقْوَى وَأَهْلُ الْمَغْفِرَةِ " {अर्थात: अब जो चाहे उससे शिक्षा ग्रहण करे। और वे उसी समय शिक्षा ग्रहण करेंगे, जब अल्लाह चाहे, वो इसी योग्य है कि लोग उससे डरें और इस योग्य है कि वह क्षमाँ करे।} (सूरा अल्-मुद्दस्सिरः 55-56)
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः कर्म (अमल) के बिना ईमान सही नहीं हो सकता,बल्कि ईमान के लिए कर्म अनिवार्य है। क्योंकि स्वीकरण (इक़रार) की तरह कर्म भी ईमान का एक स्तंभ है। सारे इमाम इस बात पर एकमत हैं कि ईमान कथ्नी एवं करनी (क़ौल व अमल) का नाम है। इस का प्रमाण यह आयत हैः "وَمَنْ يَأْتِهِ مُؤْمِنًا قَدْ عَمِلَ الصَّالِحَاتِ فَأُولَئِكَ لَهُمُ الدَّرَجَاتُ الْعُلَا" {और जो उसके सामने ईमान वाले के रूप में उपस्थित होगा, उसने अच्छे कर्म भी किये होंगे, तो ऐसे ही लोगों के लिए ऊँचे दरजे हैं।} (सूरा ताहाः 75) यहाँ अल्लाह ने जन्नत में प्रवेश पाने हेतु ईमान तथा कर्म दोनों की शर्त रखी है।
उत्तर/ तो आप कहिए: इस्लाम के निम्नलिखित पाँच स्तम्भ (अर्कान) हैं-: इस बात की गवाही देना कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई पूजने योग्य नहीं है और यह गवाही देना कि मुहम्मद ﷺ अल्लाह के अन्तिम दूत हैं, नमाज़ स्थापित करना, पवित्र रमज़ान के पूरे रोज़े (उपवास) रखना, अपने माल से जकात देना एवं अल्लाह के पवित्र घर (काबा शरीफ़) का हज करना।
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः (इस्लाम की बुनियाद पाँच वस्तुओं पर है; इस बात की गवाही देना के अल्लाह के अतिरिक्त कोई अन्य पूज्य नहीं और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि अल्लाह के रसूल हैं, नमाज़ स्थापित करना, ज़कात देना, ह़ज करना और रमज़ान के रोज़े रखना।) इस हदीस का वर्णन बुख़ारी एवं मुस्लिम ने किया है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः "अल्लाह के अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं" का अर्थ हैः अल्लाह के अतिरिक्त कोई सच्चा पूज्य नहीं। जैसा कि अल्लाह तआला ने फरमायाः "وَإِذْ قَالَ إِبْرَاهِيمُ لِأَبِيهِ وَقَوْمِهِ إِنَّنِي بَرَاءٌ مِمَّا تَعْبُدُونَ ، إِلَّا الَّذِي فَطَرَنِي فَإِنَّهُ سَيَهْدِينِ، وَجَعَلَهَا كَلِمَةً بَاقِيَةً فِي عَقِبِهِ لَعَلَّهُمْ يَرْجِعُونَ" {अर्थात : और उस समय को याद करो, जब इबराहीम ने अपने बाप और अपने समुदाय से कहाः मैं उनसे विरक्त हूँ,उन से जिनकी उपासना तुम करते हो, अतिरिक्त उसके जिसने मुझे उत्पन्न किया, वो अवश्य मेरा पथप्रदर्शन करेगा।} (सूरा अज़्-ज़ुख़रुख़ः26- 28) एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला ने फरमायाः" ذَلِكَ بِأَنَّ اللَّهَ هُوَ الْحَقُّ وَأَنَّ مَا يَدْعُونَ مِنْ دُونِهِ هُوَ الْبَاطِلُ وَأَنَّاللَّهَ هُوَ الْعَلِيُّ الْكَبِيرُ" {अर्थात : ये इसलिए कि अल्लाह ही सत्य है और लोग उसके अतिरिक्त जिनकी उपासना करते हैं, असत्य हैं। और अल्लाह सर्वोच्च एवं महान है।} (सूरा लुक़मानः ३०)
और "मुहम्मद के रसूल होने की पुष्टि करने (गवाही देने) " का अर्थ यह है कि हम विश्वास रखें और इक़रार करें कि आप अल्लाह के बन्दे और उसके भक्त हैं। आप बन्दे हैं, इसलिए आपकी बन्दगी नहीं की जा सकती, तथा नबी हैं, इसलिए झुठलाये नहीं जा सकते। आपके आदेशों का पालन किया जायेगा, आपकी बतायी हुई बातों को सच माना जायेगा, आपकी मना की हुई बातों से परहेज़ किया जायेगा तथा आप ही की बतायी हुई पद्धति के अनुसार अल्लाह की वंदना की जायेगी।
आपका अपनी उम्मत पर ह़़क़ यह है कि लोग आपका सम्मान करें, आपसे मुह़ब्बत रखें तथा हर समय एवं सभी कार्यों में यथासम्भव आपका अनुसरण करें। अल्लाह तआला ने फरमायाः "قُلْ إِنْ كُنْتُمْ تُحِبُّونَ اللَّهَ فَاتَّبِعُونِي يُحْبِبْكُمُ اللَّهُ وَيَغْفِرْ لَكُمْ ذُنُوبَكُمْ" {अर्थात : कह दोः यदि तुम अल्लाह से मुह़ब्बत करते हो, तो मेरा अनुसरण करो, अल्लाह तुमसे मुह़ब्बत करेगा और तुम्हारे गुनाहों को माफ़ करेगा।} (सूरा आले-इमरानः 31)
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः कलिम-ए-तौह़ीद (मूल मंत्र) कोई साधारण मूल मंत्र नहीं है, जिसे किसी आस्था, तगादों पर अमल किए बिना और उसे भंग करने वाली चीज़ों से बचे बिना, यूं ही कह दिया जाय। अपितु इसकी सात शर्तं हैं, जिन्हें उलमा ने शरई प्रमाणों को खंगालकर निकाला है और क़ुर्आन एवं सुन्नत को सामने रखकर संकलित किया है। ये सात शर्तें इस प्रकार हैं :
1. इसके अर्थ को इस तौर पर जानना कि वे कौन-सी वस्तुयें हैं जिन्हें इस कलिमे (मूलमंत्र ) में नकारा गया है और वे कौन-सी वस्तुयें हैं जिन्हें इसमें सिद्ध किया गया है। ये जानना कि अल्लाह अकेला है, उसका कोई साझी नहीं तथा यह कि अल्लाह के अतिरिक्त किसी अन्य में पूज्य होने के गुण नहीं पाये जाते। साथ ही इस कलिमा के तक़ाजों, लवाज़िम और भंग करने वाली वस्तुओं को इस तरह से जानना कि अज्ञानता की मिलावट न हो। अल्लाह तआला ने फरमायाः"فَاعْلَمْ أَنَّهُ لَا إِلَهَ إِلَّا اللَّهُ" {अर्थात : जान लो कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं।} (सूरा मुह़म्मदः 19) एक और स्थान में फरमायाः "لَّا مَنْ شَهِدَ بِالْحَقِّ وَهُمْ يَعْلَمُونَ" {अर्थात : सिवाय उसके जो सत्य की गवाही दे तथा वे जानते भी हों।} (सूरा अज़-ज़ुख़रुफ़ः 86) और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः (जिसकी मृत्यु इस हाल में हुई कि वो जानता हो कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं, वह अवश्य जन्नत (स्वर्ग) में प्रवेश पायेगा।) इस हदीस को मुस्लिम ने रिवायत किया है।
2. दिल में इस तरह पूर्ण विश्वास रखना कि संदेह की कोइ गुंजाईश न रहे। अल्लाह तआला ने फरमायाः "إِنَّمَا الْمُؤْمِنُونَ الَّذِينَ آَمَنُوا بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ ثُمَّ لَمْ يَرْتَابُوا وَجَاهَدُوا بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنْفُسِهِمْ فِي سَبِيلِ اللَّهِ أُولَئِكَ هُمُ الصَّادِقُونَ" {अर्थात : वास्तव में मोमिन वह हैं जो अल्लाह तथा उसके रसूल पर ईमान ले आये और फिर किसी संदेह में नहीं पड़े एवं अपने माल तथा जान के साथ अल्लाह की राह में जिहाद किए। यही लोग सत्यवादी हैं।} (सूरा अल्-ह़ुजुरातः 25) और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः "من قال أشهد أن لا إله إلا الله، وأني رسول الله، لا يلقى الله بهما عبد غير شاك فيهما إلا دخل الجنة" {अर्थात : जिसने कहाः मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं और मैं अल्लाह का रसूल हूँ, इन दोनों बातों के साथ जो बन्दा अल्लाह से मिलेगा और इनमें संदेह नहीं करेगा, वो जन्नत में प्रवेश करेगा।} इस हदीस को मुस्लिम ने रिवायत किया है।
3. ऐसा इख़्लास (अल्लाह के लिए विशुद्धता) जो शिर्क से पवित्र हो। अर्थात उपासना एवं वंदना को शिर्क तथा दिखावे के संदेहों से पाक तथा पवित्र रखना। अल्लाह तआला ने फरमायाः"أَلَا لِلَّهِ الدِّينُ الْخَالِصُ" {अर्थात: सुन लो, विशुद्ध धर्म केवल अल्लाह के लिए है।} (सूरा अज़्-ज़ुमरः 3) एक और स्थान पर फरमायाः"وَمَا أُمِرُوا إِلَّا لِيَعْبُدُوا اللَّهَ مُخْلِصِينَ لَهُ الدِّينَ" {उन्हें केवल इसी बात का आदेश दिया गया था कि एक अल्लाह की वंदना करें, उसके लिए धर्म को विशुद्ध करते हुए।} (सूरा अल्-बय्यिनाः 5) तथा अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः (क़यामत के दिन मेरी शिफ़ारिश (विनती) का सबसे अधिक हक़दार वो व्यक्ति होगा, जिसने निर्मल दिल से 'ला इलाहा इल्लल्लाह' कहा।) इस हदीस को बुख़ारी ने रिवायत किया है।
4. इस कलिमा तथा इसके अर्थ से मुहब्ब्त, ख़ुशी का अनुभव, इसका इक़रार करने वालों से दोस्ती एवं सहयोग, इससे टकराने वाली वस्तुओं से घृणा एवं काफ़िरों से खुद को अलग कर लेना। अल्लाह तआला ने फरमायाः {लोगों में से कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो कुछ लोगों को अल्लाह के सिवा साझी बना लेते हैं और उनसे वैसी मुहब्बत रखते हैं जैसी अल्लाह से होनी चाहिए, जबकि ईमान वाले अल्लाह से इससे भी बढ़कर मुहब्बत रखते हैं।} (सूरा अल्-बक़राः 165) और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः (जिसके अन्दर तीन बातें होंगी, वह ईमान की मिठास पायेगाः अल्लाह एवं उसका रसूल उसके निकट सारी वस्तुओं से अधिक प्यारा हो, जिससे मुहब्बत रखे, केवल अल्लाह के लिए रखे और दोबारा कुफ़्र की ओर लौटने को उसी तरह नापसन्द करे, जिस तरह आग में डाले जाने को नापसन्द करता है।) इस हदीस को मुस्लिम ने रिवायत किया है।
5. ज़बान से तौह़ीद का मूलमंत्र अदा होने के पश्चात दिल तथा शरीर के अन्य भागों द्वारा पूर्ण रूप से उसकी पुष्टि हो जाय। चुनांचे शरीर के सारे भाग दिल की पुष्टि करते हुए आंतरिक तथा बाह्य रूप से आज्ञापालन में लग जायें। अल्लाह तआला ने फरमायाः"فلَيَعْلَمَنَّ اللهُ الَّذين صَدَقُوا ولَيَعْلَمَنّ الكاذبين" {अर्थात: अल्लाह उन लोगों को अवश्य जान लेगा जो सत्यवादी हैं और उन लोगों को भी जान लेगा, जो झूठे हैं।} (सूरा अल्-अन्कबूतः 3) एक और स्थान पर फरमायाः "والَّذي جاء بالصِّدق وصدَّق به أولئك هُمُ الْمتَّقون" {अर्थात जो सत्य लेकर आया और उसकी पुष्टि की, ऐसे ही लोग अल्लाह से डरने वाले हैं।} (सूरा अज़्-ज़ुमरः 33) और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः "من مات وهو يشهد أن لا إله إلا الله، وأنَّ محمّداً رسول الله صادقاً من قلبه دخل الجنة" {अर्थात: (जिसकी मृत्यु इस हाल में हो कि वह सच्चे दिल से गवाही देता हो कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई अन्य पूज्य नहीं और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के रसूल हैं, वो जन्नत में प्रवेश करेगा।) इस हदीस को अहमद ने रिवायत किया है।
6. केवल एक अल्लाह की वंदना करते हुए तथा इख़्लास (निर्मलतापूर्वक), अभिरुचि, उम्मीद और अल्लाह के डर के साथ उसके आदेशों का पालन करते हुए और उसकी मना की हुई वस्तुओं से बचते हुए उसके अधिकारों को अदा करना। अल्लाह तआला ने फरमायाः"وأنيبوا إلى ربكم وأسلموا له" {अर्थात: और तुम अपने रब की ओर झुक पड़ो और उसका आज्ञापालन किये जाओ।} (सूरा अज़्-ज़ुमरः 54) तथा एक और स्थान में फरमायाः"ومن يسلم وجهه إلى الله وهو محسنٌ فقد استمسك بالعُروة الوُثقى" {अर्थात: और जो व्यक्ति अपने चेहरे को अल्लाह के अधीन कर दे तथा वो सत्कर्म करने वाला हो, तो निःसंदेह उसने मज़बूत कड़ा थाम लिया।} (सूरा लुक़मानः 2)
7. ऐसा स्वीकार, जो विरोधाभास से पवित्र हो। ऐसा न हो कि दिल तो कलिमा, उसके अर्थ एवं तक़ाज़ों को ग्रहण करे, परन्तु उसकी ओर बुलाने वाले की तरफ से उसे स्वीकार करने के लिए तैयार न हो, धर्म द्वेष एवं अहंकार के कारण। अल्लाह तआला ने फरमायाः"إِنَّهُمْ كَانُوا إِذَا قِيلَ لَهُمْ لَا إِلَهَ إِلَّا اللَّهُ يَسْتَكْبِرُونَ" {अर्थात: इनका हाल यह था कि जब इनसे कहा जाता कि अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है तो अभिमान करते थे।} (सूरा अस्-साफ़्फ़ातः 35) अतः ये मुसलमान नहीं हो सकता।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः हमारे नबी मुह़म्मद बिन अब्दुल्लाह बिन अब्दुल मुत्तलिब बिन हाशिम बिन अब्दे मनाफ़ हैं। अल्लाह ने उन्हें क़ुरैश वंश से चुना था, जो इसमाईल बिन इबराहीम की औलाद की शाखाओं में सर्वश्रेष्ठ शाखा थी। अल्लाह ने उन्हें जिन्न तथा मनुष्यों की ओर नबी बनाकर भेजा था। उनपर ग्रंथ और ज्ञान (हिकमत) उतारी थी तथा उन्हें तमाम रसूलों पर श्रेष्ठता प्रदान की थी।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः बन्दों पर अल्लाह की फ़र्ज़ की हुई प्रथम वस्तु: उसपर ईमान रखना और "ताग़ूत" का इन्कार करना हैं । जैसा कि अल्लाह तआला ने फरमायाः"لَقَدْ بَعَثْنَا فِي كُلِّ أُمَّةٍ رَسُولًا أَنِ اُعْبُدُوا اللَّهَ وَاجْتَنِبُوا الطَّاغُوتَ فَمِنْهُمْ مَنْ هَدَى اللَّهُ وَمِنْهُمْ مَنْ حَقَّتْ عَلَيْهِ الضَّلَالَةُ فَسِيرُوا فِي الْأَرْضِ فَانْظُرُوا كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الْمُكَذِّبِينَ" {अर्थात: और हमने प्रत्येक समुदाय के अन्दर एक-एक रसूल भेजा, (ये संदेश पहुँचाने के लिए कि) अल्लाह की वंदना व उपासना करो और "ताग़ूत" से बचो। चुनांचे उनमें से कुछ लोगों को अल्लाह ने सत्यमार्ग दिखाया और कुछ लोगों पर कुमार्गता अनिवार्य हो गयी। अतः तुम धरती पर चलो-फिरो और देखो कि झुठलाने वालों का अन्त कैसा रहा?} (सूरा अन्-नह़्लः 36) "ताग़ूत" से अभिप्राय हर वो वस्तु है, जिसकी वंदना तथा अनुसरण द्वारा उसे सीमा से आगे बढ़ा दिया जाय।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः अल्लाह ने स्पष्ट रूप से बयान कर दिया है कि उसने मनुष्य तथा जिन्नों को केवल अपनी वंदना हेतु उत्पन्न किया है। उसका कोई साझी नहीं। उसकी उपासना एवं वंदना यह है कि उसके आदेशों का पालन करके और उसकी मना की हुई वस्तुओं से दूर रहकर, पूर्णरूपेण उसका अनुसरण किया जाय। अल्लाह तआला ने फरमायाः"وَمَا خَلَقْتُ الْجِنَّ وَالْإِنْسَ إِلَّا لِيَعْبُدُونِ" {अर्थात: मैंने जिन्नों और मनुष्यों को केवल अपनी उपासना हेतु उत्पन्न किया है।} (सूरा अज़्-ज़ारियातः 56) तथा एक और स्थान पर फरमायाः"وَاعْبُدُوا اللَّهَ وَلَا تُشْرِكُوا بِهِ شَيْئًا" {अर्थात : अल्लाह की वंदना करो और उसका किसी को साझी न बनाओ।} (सूरा अन्-निसाः 36)
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः इबादत से अभिप्राय हर वह बात एवं प्रकटित था आंतरिक कार्य है, जिसे अल्लाह पसन्द करता हो और जिसका आस्था रखने, कहने या करने का आदेश दिया हो। जैसे उसका भय, उससे आशा, उससे प्यार करना, उससे सहायता माँगना, नमाज़ तथा रोज़ा आदि।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः निःसंदेह दुआ एक महत्वपूर्ण वंदना एवं उपासना है। जैसा कि अल्लाह तआला ने कहा हैः"وَقَالَ رَبُّكُمُ ادْعُونِي أَسْتَجِبْ لَكُمْ إِنَّ الَّذِينَ يَسْتَكْبِرُونَ عَنْ عِبَادَتِي سَيَدْخُلُونَ جَهَنَّمَ دَاخِرِينَ" {अर्थात: और तुम्हारे रब ने कहाः तुम मुझे पुकारो, मैं तुम्हारी दुआ स्वीकार करूँगा। निःसंदेह! जो लोग मेरी इबादत से अभिमान करते हैं, वे जहन्नम में अपमानित होकर प्रवेश करेंगे।} (सूरा ग़ाफ़िरः 60) और ह़दीस में है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः "الدعاء هو العبادة" अर्थात : (दुआ ही इबादत है।) इस हदीस को तिरमिज़ी ने रिवायत किया है। इस्लाम में इसके महत्व का एक प्रमाण यह भी है कि पवित्र क़ुर्आन में इसके सम्बन्ध में तीन सौ से अधिक आयतें उतरी हैं। फिर दुआ के दो प्रकार हैं, इबादत पर आधारित दुआ तथा सवाल पर आधारित दुआ। लेकिन, इनमें हर प्रकार की दुआ दूसरे से जुडी हेई है।
इबादत पर आधारित दुआः इबादत पर आधारित दुआ का मतलब है, किसी वांछित वस्तु की प्राप्ति अथवा किसी परेशानी से मुक्ति पाने के लिए, केवल अल्लाह के लिए की गयी उपासना को माध्यम बनाकर उसके दर तक पहुँचना। अल्लाह तआला ने फरमायाः"وَذَا النُّونِ إِذْ ذَهَبَ مُغَاضِبًا فَظَنَّ أَنْ لَنْ نَقْدِرَ عَلَيْهِ فَنَادَى فِي الظُّلُمَاتِ أَنْ لَا إِلَهَ إِلَّا أَنْتَ سُبْحَانَكَ إِنِّي كُنْتُ مِنَ الظَّالِمِينَ ، فَاسْتَجَبْنَا لَهُ وَنَجَّيْنَاهُ مِنَ الْغَمِّ وَكَذَلِكَ نُنْجِي الْمُؤْمِنِينَ" {अर्थात: तथा मछली वाले नबी को याद करो, जब वो क्रोधित होकर चल दिया और ये समझ बैठा कि हम उसकी पकड़ नहीं करेंगे। अन्ततः उसने अंधेरों में पुकारा कि ऐ अल्लाह, तेरे अतिरिक्त कोई अन्य पूज्य नहीं, तेरी ज़ात पाक है, निश्चय मैं अत्याचारियों में से था। चुनांचे हमने उसकी दुआ स्वीकार कर ली और उसे दुख से मुक्ति प्रदान कर दी। इसी तरह हम ईमान वालों को मुक्ति प्रदान करते हैं।} (सूरा अल्-अम्बियाः 87-88)
सवाल पर आधारित दुआः सवाल पर आधारित दुआ यह है कि दुआ करने वाला किसी वांछित वस्तु की प्राप्ति अथवा दुख से छुटकारा पाने की दुआ करे। अल्लाह तआला ने फरमायाः "رَبَّنَا إِنَّنَا آَمَنَّا فَاغْفِرْ لَنَا ذُنُوبَنَا وَقِنَا عَذَابَ النَّارِ" {अर्थात: ऐ हमारे पालनहार, यक़ीनन हम ईमान लाये। अतः हमारे पापों को क्षमा कर और हमें नरक की अग्नि से बचा।} (सूरा आले-इमरानः 16)
दुआ अपने दोनों प्रकारों के साथ, वंदना व उपासना का निचोड़ और उसका सार है। यह मांगने में सरल, करने में सरल तथा प्रतिष्ठा एवं प्रभाव के ऐतबार से सबसे महत्वपूर्ण है। ये अल्लाह की अनुमति से, नापसन्दीदा वस्तु से बचाव और वांछित वस्तु की प्राप्ति के मज़बूत माध्यमों में से एक है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः किसी भी कार्य के अल्लाह के यहाँ स्वीकृत प्राप्त करने के लिए दो शर्तों का पाया जान अनिवार्य हैः पहली शर्तः उसे केवल अल्लाह के लिए किया जाय। इसकी दलील अल्लाह तआला का यह शुभ उपदेश हैः "وَمَا أُمِرُوا إِلَّا لِيَعْبُدُوا اللَّهَ مُخْلِصِينَ لَهُ الدِّينَ حُنَفَاءَ" {अर्थात : उन्हें इसके सिवाय कोई आदेश नहीं दिया गया है कि केवल अल्लाह तआला की इबादत करें, उसी के लिए धर्म को विशुद्ध करते हुए, बिल्कुल एकाग्र होकर।} (सूरा अल्-बय्यिनाः 5) तथा अल्लाह तआला ने फरमायाः "فَمَنْ كَانَ يَرْجُوا لِقَاءَ رَبِّهِ فَلْيَعْمَلْ عَمَلًا صَالِحًا وَلَا يُشْرِكْ بِعِبَادَةِ رَبِّهِ أَحَدًا" {अर्थात: जो अपने रब से मिलने की उम्मीद रखता हो, वो अच्छा कार्य करे और अपने रब की उपासना में किसी को साझी न बनये। (सूरा अल्-कह्फ़ः 110)
दूसरी शर्तः वह कार्य मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की लायी हुई शरीअत के अनुसार हो। इसका प्रमाण अल्लाह तआला का ये फरमान हैः"قُلْ إِنْ كُنْتُمْ تُحِبُّونَ اللَّهَ فَاتَّبِعُونِي يُحْبِبْكُمُ اللَّهُ" अर्थात: {ऐ नबी, आप कह दीजिएः यदि तुम अल्लाह से मुहब्बत करते हो तो मेरा अनुसरण करो, अल्लाह तुमसे मुहब्बत करेगा।} (सूरा आले ईमरानः 31) तथा अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः"من عمل عملاً ليس عليه أمرنا فهو رد" अर्थात : (जिसने कोई ऐसा कार्य किया, जिसका आदेश हमने नहीं दिया है, तो उसका वह कर्म अस्वीकार्य है।) इस हदीस को मुस्लिम ने रिवायत किया है। यदि अमल (कर्म ) मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के बताये हुए तरीक़े के अनुसार न हो तो स्वीकार नहीं किया जाता, यद्यपि अमल करने वाला उसे केवल अल्लाह के लिए ही क्यों न करे।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः नहीं। ये ज़रूरी है कि कार्य निर्मल अल्लाह के लिए होने के साथ-साथ वह मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की शरीअत के अनुसार हो। इसकी दलील अल्लाह तआला का ये फ़रमान हैः"فَمَنْ كَانَ يَرْجُو لِقَاءَ رَبِّهِ فَلْيَعْمَلْ عَمَلًا صَالِحًا وَلَا يُشْرِكْ بِعِبَادَةِ رَبِّهِ أَحَدًا" अर्थात: {जो अपने पालनहार से मिलने की आशा रखता हो, उसे चाहिए कि सत्कर्म करे और अपने पालनहार की वंदना-उपासना में किसी को साझी न बनाये।} (सूरा अल्-कह्फ़ः 110) अल्लाह ने इस आयत में इबादत के स्वीकार होने के लिए शर्त रखी है कि नीयत सही हो तथा कार्य पुण्य का हो एवं मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की शरीअत के अनुसार किया गया हो।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः यह चार प्रकार का होता है :1-तौह़ीदे रुबूबीयतः ये इस बात का पूर्ण विश्वास है कि अल्लाह ही उत्पत्तिकार है, समस्त सृष्टि संचालक है, उसका कोई साझी और सहयोगी नहीं। ये दरअसल अल्लाह को उसके कार्यों में एक मानना है। अल्लाह तआला ने फ़रमायाः"هَلْ مِنْ خَالِقٍ غَيْرُ اللَّهِ يَرْزُقُكُمْ مِنَ السَّمَاءِ وَالْأَرْضِ لَا إِلَهَ إِلَّا هُوَ فَأَنَّى تُؤْفَكُونَ" अर्थात: {क्या अल्लाह के सिवा कोई उत्पत्तिकार है, जो तुम्हें आकाश एवं धरती से जीविका देता है? उसके सिवा कोई पूज्य नहीं। फिर तुम कहाँ बहके जाते हो?} (सूरा फ़ातिरः 3) एक और स्थान में फ़रमायाः"إِنَّ اللَّهَ هُوَ الرَّزَّاقُ ذُو الْقُوَّةِ الْمَتِينُ" अर्थात: {निःसंदेह, अल्लाह ही अन्यदाता, बड़ी शक्ति वाला, जबरदस्त है।} (सूरा अज़्-ज़ारियातः 58) तथा अल्लाह तआला ने फ़रमायाः"يُدَبِّرُ الْأَمْرَ مِنَ السَّمَاءِ إِلَى الْأَرْضِ" अर्थात: {वो आकाश से धरती तक सनसार के मामलात का संचालन करता है।} (सूरा अस्-सजदाः 5) तथा अल्लाह तआला ने फ़रमायाः"أَلَا لَهُ الْخَلْقُ وَالْأَمْرُ تَبَارَكَ اللَّهُ رَبُّ الْعَالَمِينَ" अर्थात: {सावधान, उसी की सृष्टि है और उसी का आदेश, बड़ा बरकत वाला है अल्लाह, जो सारे जहान का पालनहार है।} (सूरा अल्-आराफ़ः 54)
2- तौह़ीदे असमा व सिफ़ातः अर्थात इस बात का पूर्ण विश्वास रखना कि अल्लाह के कुछ अच्छे-अच्छे नाम एवं सम्पूर्ण गुण हैं, जो क़ुर्आन तथा सुन्नत से सिद्ध हैं। उनपर विश्वास रखते समय न अवस्था का विवरण किया जाय, न उदाहरण पेश की जाय, न उनमें छेड़-छाड़ की जाय और न उनका इन्कार किया जाय। बल्कि ये विश्वास रखा जाय कि उसके समान कोई वस्तु नहीं। अल्लाह तआला ने फरमायाः"لَيْسَ كَمِثْلِهِ شَيْءٌ وَهُوَ السَّمِيعُ الْبَصِيرُ" अर्थात: {उसके जैसी कोई वस्तु नहीं, वह सुनने और देखने वाला है।} (सूरा अश्-शूराः 11) तथा एक और स्थान में फरमायाः"وَلِلَّهِ الْأَسْمَاءُ الْحُسْنَى فَادْعُوهُ بِهَا" अर्थात: {और अल्लाह के अच्छे-अच्छे नाम हैं, तुम उसे उन्हीं के द्वारा पूकारो।} (सूरा अल्-आराफ़: १८०)
3- तौह़ीदे उलूहीयतः अर्थात केवल अल्लाह की उपासना एवं वंदना करना, जो एक है और उसका कोई साझी नहीं। यह दरअसल बन्दों के उपासना-मूलक कार्यों के केवल अल्लाह के लिए समर्पित होने का नाम है। अल्लाह तआला ने फरमायाः "وَمَا أُمِرُوا إِلَّا لِيَعْبُدُوا اللَّهَ مُخْلِصِينَ لَهُ الدِّينَ" अर्थात : {उन्हें केवल इस बात का आदेश दिया गया था कि अल्लाह की वंदना करें, उसके लिए दीन (धर्म) को निर्मल करते हुए।} (सूरा अल्-बय्यिनाः 5) एक और स्थान में फरमायाः"وَمَا أَرْسَلْنَا مِنْ قَبْلِكَ مِنْ رَسُولٍ إِلَّا نُوحِي إِلَيْهِ أَنَّهُ لَا إِلَهَ إِلَّا أَنَا فَاعْبُدُونِ" अर्थात: {हमने आपसे पहले जो भी रसूल भेजे, उनकी ओर यह वह्य की कि मेरे अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं है, अतः मेरी ही वंदना करो।} (सूरा अल्-अम्बियाः 25) ये गणित केवल इल्मी विवरण के लिए है, अन्यथा ये सब क़ुर्आन एवं सुन्नत का अनुसरण करने वाले एकेश्वरवादी मोमिन के आस्था से सम्बंधित वस्तुएं हैं।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः सबसे बड़ा पाप शिर्क (अनेकेश्वरवाद) है। अल्लाह तआला ने फरमायाः"قَدْ كَفَرَ الَّذِينَ قَالُوا إِنَّ اللَّهَ هُوَ الْمَسِيحُ ابْنُ مَرْيَمَ وَقَالَ الْمَسِيحُ يَا بَنِي إِسْرَائِيلَ اعْبُدُوا اللَّهَ رَبِّي وَرَبَّكُمْ إِنَّهُ مَنْ يُشْرِكْ بِاللَّهِ فَقَدْ حَرَّمَ اللَّهُ عَلَيْهِ الْجَنَّةَ وَمَأْوَاهُ النَّارُ وَمَا لِلظَّالِمِينَ مِنْ أَنْصَارٍ " अर्थात: {निःसंदेह वे लोग काफ़िर हो गये, जिन्होंने कहा कि अल्लाह मसीह बिन मरयम ही है। जबकि मसीह़ ने कहा था कि ऐ बनी इसराई, अल्लाह की वंदना करो, जो मेरा और तुम्हारा रब है। निःसंदेह जिसने अल्लाह के साथ शिर्क किया, अल्लाह ने उसपर जन्नत वर्जित कर दी है और उसका ठिकाना जहन्नम है और इन अत्याचारियों का कोई सहायक नहीं होगा।} (सूरा अल्-माइदाः 72) और अल्लाह तआला ने फरमायाः"إِنَّ اللَّهَ لَا يَغْفِرُ أَنْ يُشْرَكَ بِهِ وَيَغْفِرُ مَا دُونَ ذَلِكَلِمَنْ يَشَاءُ" अर्थात : {निःसंदेह, अल्लाह इस बात को क्षमा नहीं करेगा कि उसके साथ शिर्क किया जाय, जबकि इसके सिवा अन्य पापों में से जिसके चाहेगा, माफ कर देगा।} (सूरा अन्-निसाः 48) अल्लाह तआला की यह घोंषणा कि शिर्क को क्षमा नहीं करेगा, उसके सबसे महा पाप होने का प्रमाण है। इसकी पुष्टि उस हदीस से होती है, जिसमें है कि जब आपसे पूछा गया कि सबसे बड़ा पाप कौन सा है, तो आपने फ़रमायाः "أن تجعل لله نداً وهو خلقك" (अर्थात: यह कि तुम अल्लाह का साझी बनाओ, जबकि उसने तुम्हें पैदा किया है।) इस हदीस को बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है। इस हदीस में आने वाले शब्द 'निद्द' का अर्थ हैः हमसर, बराबर और समतुल्य।
शिर्क (अनेकेश्वरवाद) का अर्थ हैः कोई किसी फ़रिश्ता, रसूल अथवा वली आदि को अल्लाह का साझी, बराबर और समतुल्य बनाये और उसके अन्दर रुबूबीयत के गुणों में से किसी गुण अथवा विशेषता की आस्था, उदाहरणतः उत्पन्न करना, अधिपति होना और संचालन करना आदि, रखे। अथवा उनकी निकटता प्राप्त करने क प्रयास करे और उनको पुकारे, उनसे आशा रखे, भय करे, उनपर भरोसा करे अथवा अल्लाह को छोड़कर या अल्लाह के साथ उनकी ओर अभिरूचि दिखाये एवं उनके लिए प्रकटित अथवा आतंरिक, शारीरिक अथवा आर्थिक वंदना में से कुछ भी करे।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः इसके दो प्रकार हैं :
1. बड़ा शिर्कः बड़े शिर्क से अभिप्राय यह है कि कोई भी वंदना अल्लाह के अतिरिक्त किसी और के लिए की जाय। उदाहरणतः उसके अतिरिक्त किसी और पर भरोसा करना, मरे हुए लोगों से सहायता माँगना, अल्लाह के अतिरिक्त किसी और के लिए पशुओं की बलि देना, अल्लाह के अतिरिक्त कीसी अन्य के लिए मन्नत मानना, अल्लाह के अतिरिक्त किसी और के लिए सज्दा करना एवं अल्लाह के सिवा किसी और से उन मामलों में सहायता माँगना करना जिनमें सहायता करने की शक्ति केवल अल्लाह ही को है। उदाहरणतः अनुपस्थित लोगों अथवा मरे हुए लोगों से सहायता माँगना। दरअसल इस तरह के अज्ञानता के कार्य वही करता है, जो इस बात पर विश्वास रखता है कि अल्लाह के सिवा ये लोग दुआ स्वीकार करते हैं और ऐसे कार्य कर सकते हैं जो अल्लाह के अतिरिक्त कोई और कर नहीं सकता और इसी आस्था की बिना पर वह उस व्यक्ति के अन्दर रुबूबीयत की विशेषताओं के पाये जाने का अक़ीदा रखने वाला बन जाता है। यही कारण है कि वह उसके सामने झुकता है, बन्दगी जैसी विनम्रता अपनाता है, फिर उसपर भरोसा करता है, विनती करता है, सहायता माँगता है, पुकारता है और वो चीज़ें माँगता है जो कोई मख़्लूक़ दे नहीं सकती। ये बड़ी आश्चर्य जनक बात है कि किसी ऐसे निर्बल और विवश से फरियाद की जाय जो ख़ुद अपने लिए किसी लाभ-हानि की शक्ति न रखता हो, मृत्यु एवं जीवन तथा पुनः उठाने का मालिक न हो। भला जो अपनी किसी विपत्ति को टाल न सके वो दूसरे को विपत्ति से मुक्ति केसे दिला सकता है? ये तो ऐसे ही हुआ जैसे कोई डूबने वाला दूसरे डूबने वाले से सहायता माँगे। अल्लाह पवित्र है, आदमी की कैसी मत मारी जाती है कि इस तरह का शिर्क करता है, जबकि ये शरीअत के विपरीत है, समझ के ख़िलाफ़ है तथा ज्ञान के विरोध है।
2. छोटा शिर्कः जैसे थोड़ी-सी रियाकारी (दिखावा)। उदाहरणतः अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के इस कथन में हैः"أخوف ما أخاف عليكم الشرك الأصغر، فسئل عنه فقال: الرياء" (अर्थात: मुझे तुमपर जिस चीज़ का सबसे अधिक डर है, वो छोटा शिर्क है। जब आपसे उसके बारे में पूछा गया तो फरमायाः इस से अभिप्राय दिखावा है। इसका एक अन्य उदाहरण अल्लाह के अतिरिक्त किसी और की क़सम (सौगंध) खाना है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः (जिसने अल्लाह के अलावा किसी अन्य की सौगंध उठाई, उसने शिर्क किया अथवा कुफ़्र किया।) इस हदीस को तिरमिज़ी ने रिवायत किया है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः इसके दो प्रकार हैं,
1. बड़ा कुफ़्रः ये कुफ़्र मनुष्य को इस्लाम से निकाल देता है। ये वो कुफ़्र है, जो असल दीन (धर्म) से टकराता हो। जैसे कोई अल्लाह, उसके धर्म अथवा उसके संदेष्टा को गाली दे या धर्म एवं शरीअत से जुड़ी हुई किसी वस्तु का मज़ाक़ उड़ाये अथवा अल्लाह की किसी सूचना, आदेश अथवा मनाही का खंडन करे, अतः अल्लाह और उसके रसूल की बताई हुई किसी बात को झुठला दे या किसी ऐसी चीज़ का इन्कार कर दे, जिसे अल्लाह ने अपने बन्दों पर अतिवार्य किया है अथवा अल्लाह और उसके रसूल द्वारा हराम (वर्जित) की गयी किसी वस्तु को हलाल कर ले। अल्लाह तआला ने फरमायाः"قُلْ أَبِاللَّهِ وَآَيَاتِهِ وَرَسُولِهِ كُنْتُمْ تَسْتَهْزِئُونَ، لَا تَعْتَذِرُوا قَدْ كَفَرْتُمْ بَعْدَ إِيمَانِكُمْ" ढ{अर्थात: क्या अल्लाह, उसकी निशानियों और उसके रसूल का तुम मज़ाक़ उड़ाते थे? अब बहाने मत गढ़ो, तुमने ईमान लाने के पश्चात कुफ़्र किया है।} (सूरा तौबाः 64-66)
2. छोटा कुफ़्रः यह ऐसा कुफ़्र है, जिसे शरई प्रमाण ने तो कुफ़्र कहा है, परन्तु बड़ा कुफ़्र नहीं। इसे 'नेमत का कुफ़्र' अथवा 'छोटा कुफ़्र' कहा जाता है। जैसे मुसलमान से लड़ाई करना, अपने वंशावली से बरी हो जाना, मुर्दे पर शोकालाप करना आदि जाहिलीयत के ज़माने के कार्य। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः"سباب المسلم فسوق وقتاله كفر" (अर्थात: मुसलमान को गाली देना पाप है और उससे लड़ाई करना कुफ़्र है।) इस हदीस को बुख़ारी ने रिवायत किया है। एक और हदीस में है कि आपने फरमायाः "اثنتان في الناس هما بهم كفرٌ: الطعن بالأنساب, والنياحة على الميت" (अर्थात: लोगों की दो बातें कुफ़्र में शामिल हैं, वंश पर ताना देना और मुर्दे पर शोकालाप करना।) इसे इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है। ये सारे कार्य यद्यपि इस्लाम से निकालने वाले नहीं हैं, किन्त महा पापों में से हैं। अल्लाह की पनाह!
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः निफ़ाक़ के दो प्रकार हैं, बड़ा निफाक़ और छोटा निफ़ाक़।
बड़ा निफ़ाक़ः अर्थात ईमान प्रकट करना और कुफ़्र छुपाना। निफ़ाक़ के प्रमुख प्रभाव इस प्रकार हैं, इस्लाम से द्वेष, उसकी सहायता से पीछे हटना, उसके मानने वाले मुसलमानों से शत्रुता रखना तथा उनसे युद्ध करने और उनके धर्म में बिगाड़ पैदा करने के प्रयास में रहना।
छोटा निफ़ाक़ः अर्थात दिल में कुफ़्र तो न हो, परन्तु काम मुनाफ़िक़ों जैसा करे। जैसे आदमी बात करे, तो झूट बोले, वादा करे तो तोड़ दे और उसके पास अमानत रखी जाय तो ख़यानत करे। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः"آية المنافق ثلاث إذا حدّث كذب، وإذا اؤتمن خان، وإذا وعد أخلف" (अर्थात: मुनाफ़िक़ की तीन निशानियाँ हैंः जब बात करे तो झुठ बोले, उसके पास कोइ धरोहर रखी जाय तो ख़यानत (ग़बन) करे और वचन दे तो तोड़ डाले।) इस हदीस को बुख़ारी ने रिवायत किया है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः अरबी शब्द 'अन्-नाक़िज़' का अर्थ है, निष्फल एवं बेअसर करने वाला तथा बिगाड़ने वाला कि जब किसी वस्तु पर तारी हो जाय, उसे निष्फल और बेअसर कर दे और बिगाड़ दे। उदाहरणतः 'नवाक़िज़े वज़ू' अर्थात वो कार्य जिनके करने से वज़ू टूट जाता है और पुनः वज़ू करना ज़रूरी हो जाता है। इसी प्रकार 'नवाक़िज़े इस्लाम' हैं, अर्थात ऐसे कार्य जिनके करने से भक्त का इस्लाम बेकार हो जाता है और वो इस्लाम की सीमा से निकलकर कुफ़्र में प्रवेश कर जाता है। उलमा ने ऐसी बहुत-सी बातें प्रस्तुत हैं, जिनके करने से मनुष्य अपने दीन से वंचित हो जाता है और उसके जान एवं माल हलाल हो जाते हैं। परन्तु इनमें से दस वस्तुएं ऐसी हैं, जो अधिक महत्वपूर्ण हैं, अन्य चीज़ों के मुक़ाबले में ज़्यादा देखने को मिलती हैं और उनपर सारे उलमा एकमत हैं। इस्लाम को तोड़ने वाली ये दस चीज़ें इस प्रकार हैंः पहली वस्तुः अल्लाह की वंदना में किसी अन्य को साझी बनाना। अल्लाह तआला ने फरमायाः"إِنَّ اللَّهَ لَا يَغْفِرُ أَنْ يُشْرَكَ بِهِ وَيَغْفِرُ مَا دُونَ ذَلِكَ لِمَنْ يَشَاءُ" {अर्थात: अल्लाह इस बात को क्षमा नहीं करेगा कि उसके साथ किसी को साझी किया जाय, जबकि इसके सिवा अन्य पाप जिसके चाहेगा, क्षमा कर देगा।} (सूरा अन्-निसाः 116) तथा एक अन्य स्थान में फरमायाः"إِنَّهُ مَنْ يُشْرِكْ بِاللَّهِ فَقَدْ حَرَّمَ اللَّهُ عَلَيْهِ الْجَنَّةَ وَمَأْوَاهُ النَّارُ وَمَا لِلظَّالِمِينَ مِنْ أَنْصَارٍ" {अर्थत: निःसंदेह, जो किसी को अल्लाह का साझी बनायेगा, अल्लाह ने उसपर जन्नत वर्जित कर दी है और उसका ठिकाना नरक है और इन अत्याचारियों का कोई सहायक नहीं होगा।} (सूरा अल्-माइदाः72) इसके अन्य उदाहरण कुछ इस प्रकार हैं, अल्लाह के सिवा किसी और को पुकारना, उनसे सहायता अथवा शरण माँगना, उनके लिए मन्नत मानना तथा पशुओं की बलि देना आदि उदाहरणतः कोई जिन्न, क़ब्र अथवा जीवित अथवा मृत वली के लिए भलाई प्राप्त करने अथवा विपत्ति से बचाव की नीयत से बलि चढ़ाये उदाहरणतः कुछ जाहिल लोग करते हैं, जो कुपथ और मक्कार लोगों की झूठी बातों औैर संदेहों के धोखे में पड़े हुए हैं।
दूसरी वस्तुः इस्लाम की सीमा रेखा से बाहर करने वाली दूसरी वस्तु यह है कि मनुष्य अपने और अल्लाह के बीच कुछ माध्यम (वसीले) बनाकर उन्हें पुकारे, शिफ़ारिश तलब करे तथा इस लोक एवं प्रलोक में वांछित वस्तुओं एवं आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उन्हीं पर भरोसा करे। ऐसे व्यक्ति के काफ़िर होने पर उलमा एकमत हैं। अल्लाह तआला ने फरमायाः"قُلْ إِنَّمَا أَدْعُو رَبِّي وَلَا أُشْرِكُ بِهِ أَحَدًا" {अर्थात: आप कह दीजिए कि मैं अपने रब को पुकारता हूँ और उसका किसी को साझी नहीं बनाता।} (सूरा अल्-जिन्नः20)
तीसरी वस्तुः यदि कोई मुसलमान मुश्रिकों (अनेकेश्वरवादियों) को काफ़िर न समझे, उनके कुफ़्र में संदेह जताये अथवा उनके धर्म को सही बताये, तो वो काफ़िर है। अल्लाह तआला ने फ़रमायाः "وَقَالَتِ الْيَهُودُ عُزَيْرٌ ابْنُ اللَّهِ وَقَالَتِ النَّصَارَى الْمَسِيحُ ابْنُ اللَّهِ ذَلِكَ قَوْلُهُمْ بِأَفْوَاهِهِمْ يُضَاهِئُونَ قَوْلَ الَّذِينَ كَفَرُوا مِنْ قَبْلُ قَاتَلَهُمُ اللَّهُ أَنَّى يُؤْفَكُونَ" {अर्थात: तथा यहूदियों ने कहा कि उज़ैर अल्लाह के बेटे हैं एवं ईसाइयों ने कहा कि मसीह़ अल्लाह के बेटे हैं। ये उनके मुँह से निकली हुई बातें हैं। दरअसल ये इससे पहले गुज़रे हुए काफ़िरों जैसी ही बातें कर रहे हैं। अल्लाह इन्हें नाश करे, ये कहाँ बहके जा रहे हैं?} (सूरा अत्-तौबाः 30) क्योंकि कुफ़्र से सहमत होना भी कुफ़्र है तथा इस्लाम का दावा उसी वक्त सही हो सकता है, जब आदमी 'ताग़ूत' का इन्कार करे; इस आस्था के साथ कि इस्लाम के सिवा अन्य सभी धर्म असत्य हैं। फिर यथासम्भव उनसे नफ़रत करे, उन धर्मों तथा उनके मानने वालों से बराअत की घोषणा करे तथा जिहाद करे।
चौथी वस्तुः जो ये विश्वास रखे कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के अलावा किसी और का तरीक़ा अधिक सम्पूर्ण है, या आपके अलावा किसी अन्य का निर्णय अधिक तर्कसंगत है, वो काफ़िर है। जैसे कोई अल्लाह के अलावा किसी और के निर्णयों, मानव निर्मित संविधानों तथा किसी इन्सान के आदेश को अल्लाह और उसके रसूल के निर्णयों और आदेशों पर प्रधानता दे। अल्लाह तआला ने फरमायाः "فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤْمِنُونَ حَتَّى يُحَكِّمُوكَ فِيمَا شَجَرَ بَيْنَهُمْ ثُمَّ لَا يَجِدُوا فِي أَنْفُسِهِمْ حَرَجًا مِمَّا قَضَيْتَ وَيُسَلِّمُوا تَسْلِيمًا" {अर्थात:तेरे पालनहार की सौगंध, ये मोमिन नहीं हो सकते, यहाँ तक कि अपने मतभेदों में आपको मध्यस्त मान लें, फिर आपके निर्णय पर अपने दिल में किसी प्रकार की तंगी न पायें और खुशी-खुशी मान लें।} (सूरा अन्-निसाः 65) जो व्यक्ति रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सही सुन्नत से अवगत होने के बावजूद पीरों तथा फ़क़ीरों के पंथों और आडंबरों को अपनाये, उसके काफ़िर होने पर सारे उलमा एकमत हैं।
पाँचवीं वस्तुः जो मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की लायी हुई किसी भी वस्तु से शत्रुता रखे, वो काफ़िर है, यद्यपि वो उसपर अमल कर रहा हो। अल्लाह तआला ने फरमायाः"ذَلِكَ بِأَنَّهُمْ كَرِهُوا مَا أَنْزَلَ اللَّهُ فَأَحْبَطَ أَعْمَالَهُمْ" {अर्थात: ऐसा इसलिए है कि उन्होंने उस चीज़ को नापसन्द किया, जिसे अल्लाह ने उतारा है, तो अल्लाह ने उनके कर्म अकारथ कर दिये।} (सूरा मुह़म्मदः 9)
छठी वस्तुः जो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के लाये हुए धर्म की किसी भी वस्तु का मज़ाक़ उड़ाये, वो काफ़िर है। जैसे कोई आपके किसी आदेश, शरई निर्णय , सुन्नत अथवा आपके द्वारा दी हुई सूचना का मज़ाक़ उड़ाये, अथवा अल्लाह की ओर से आज्ञाकारियों को मिलने वाली नेमतों अथवा अवज्ञाकारियों को मिलने वाली यातना का परिहास करे, जिनकी सूचना सवयं अल्लाह अथवा उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने दी है। इसका प्रमाण अल्लाह तआला का ये कथन हैः "قُلْ أَبِاللَّهِ وَآَيَاتِهِ وَرَسُولِهِ كُنْتُمْ تَسْتَهْزِئُونَ ، لَا تَعْتَذِرُوا قَدْ كَفَرْتُمْ بَعْدَ إِيمَانِكُم" {अर्थात: क्या तुम अल्लाह, उसकी निशानियों और उसके रसूल का मज़ाक़ उड़ाया करते थे?} (सूरा अत्-तौबाः 65-66)
सातवीं वस्तुः जादू, जिसके लिए जिन्नों और शैतानों का सहारा लेना पड़ता है, उन्हें साझी बनाना पड़ता है तथा उनकी प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए कुफ़्र पर आधारित कार्य करने पड़ते हैं। इसके द्वारा इन्सान की ज्ञानेंद्रियों तथा हृदय को प्रभावित भी किया जा सकता है। जादू करने वाला तथा उससे सहमत होने वाला काफ़िर है। इसका प्रमाण अल्लाह तआला का ये कथन हैः "وَمَا يُعَلِّمَانِ مِنْ أَحَدٍ حَتَّى يَقُولَا إِنَّمَا نَحْنُ فِتْنَةٌ فَلَا تَكْفُرْ" {अर्थात:वे दोनों किसी को उस समय तक जादू नहीं सिखाते थे, जब तक यह न कह देते कि हम केवल एक आज़माइश हैं, अतः तू (जादू सीख कर ) कुफ़्र में न पड़।} (सूरा अल्-बक़राः 102)
आठवीं वस्तुः मुसलमानों के विरुद्ध मुश्रिकों का साथ देना और उनकी सहायता करना। इसका प्रमाण अल्लाह तआला का ये कथन हैः"وَمَنْ يَتَوَلَّهُمْ مِنْكُمْ فَإِنَّهُ مِنْهُمْ إِنَّ اللَّهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الظَّالِمِينَ" {अर्थात: तुममें से जो व्यक्ति उनसे दोस्ती करता है, उसकी गिनती उन्हीं में से है और अल्लाह अत्याचारी समुदायों को पथप्रदर्शन नहीं करता ।} (सूरा अल्-माइदाः 51)
नौवीं वस्तुः जो व्यक्ति ये विश्वास रखे कि कुछ लोगों के लिए मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की शरीअत से निकलने की गुन्ज़ाइश है, जैसा कि खिज्र अलैहिस्सलाम के लिए मूसा अलैहिस्सलाम की शरीअत से निकलने की गुन्जाइिश थी, तो वो काफ़िर है। क्योंकि अल्लाह तआला ने फरमाया हैः"وَمَنْ يَبْتَغِ غَيْرَ الْإِسْلَامِ دِينًا فَلَنْ يُقْبَلَ مِنْهُ وَهُوَ فِي الْآَخِرَةِ مِنَ الْخَاسِرِينَ" {अर्थात: तथा जो इस्लाम के अतिरिक्त अन्य धर्म ढूँढेगा, उसकी ओर से इसे कदापि स्वीकार नहीं किया जायेगा तथा वो प्रलोक में हानि उठाने वालों में से होगा।} (सूरा आले-इमरानः 85)
दसवीं वस्तु: अल्लाह के दीन (धर्म) से मुँह मोड़ना। अतः उसे सीखे न ही उसपर अमल करे। इस का प्रमाण अल्लाह तआला का यह कथन हैः "وَمَنْ أَظْلَمُ مِمَّنْ ذُكِّرَ بِآَيَاتِ رَبِّهِ ثُمَّ أَعْرَضَ عَنْهَا إِنَّا مِنَ الْمُجْرِمِينَ مُنْتَقِمُونَ" {अर्थात: उससे बड़ा अत्याचारी और कौन हो सकता है, जिसे हमारी आयतों की याद दिलायी जाय, इसके बावजूद मुँह फेर ले। निश्चय हम अपराधियों से बदला लेने वाले हैं।} (सूरा अस्-सजदाः 22) ज्ञात हो कि अल्लाह के दीन (धर्म) से मुँह फेरने का तात्पर्य यह है, धर्म के उन मूल सिद्धांतों का ज्ञान अर्जन न करना, जिनका जानना अनिवार्य है और जिनके जाने बिना धर्म सही नीव पर खड़ा नहीं हो सकता।
इस्लाम से बाहर कर देने वाली इन वस्तुओं के उल्लेख के बाद बेहतर मालूम होता है कि दो महत्वपूर्ण बिन्दुओं को चिह्नित कर दिया जायः
1) ) इस्लाम की सीमा रेखा से बाहर कर देने वाली इन वस्तुओं का वर्णन इसलिए किया गया है, ताकि मनुष्य इनसे बचे और लोगों को सावधान रखे। क्योंकि शयतान और उसके सहायक, जिनका मिशन धर्म में बिगाड़ पैदा करना और लोगों को कुमार्ग करना है, मुसलमानों की घात में लगे रहते हैं; जैसे ही उनमें से किसी को अचेतना अथवा अज्ञानता का शिकार पाते हैं तुरंत टूट पड़ते हैं और उसे सत्य से असत्य की ओर मोड़ने तथा जन्नत के रास्ते से हटाकर जहन्नम के रास्ते पर लगाने के प्रयास में जुट जाते हैं।
2) ) इस्लाम की सीमा रेखा से बाहर करने वाले इन उमूर को लागू करने का काम पुख्ता इल्म वाले उलमा का है। क्योंकि वही दलीलों तथा लोगों पर अहकाम को लागू करने के सिद्धांतों से अवगत हैं। जिस-तिस को इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती।
उत्तर/ तो कहा जायेगाः जिनके बारे में शरई प्रमाण मौजूद है, उनके अलावा किसी अन्य ब्यक्ति के बारे में जन्नती अथवा जहन्नमी होने का हुक्म नहीं लगाया जायेगा। परन्तु सत्कर्मी के लिए सवाब की आशा रखी जायेगी और कुकर्मी पर यातना का भय किया जायेगा। हम कहेंगेः ईमान के साथ मरने वाला प्रत्येक व्यक्ति कभी न कभी जन्नत में जायेगा और शिर्क तथा कुफ़्र पर मरने वाले हर व्यक्ति का ठिकाना जहन्नम है और ये बुरा ठिकाना है।
उत्तर/ तो कहा जायेगाः किसी मुसलमान के गुनाह में लिप्त होने और अवज्ञा के कारण उसे काफ़िर नहीं कहा जा सकता, यद्यपि वो बड़े गुनाहों में ही क्यों न पड़ा हो, जब तक वो कोई ऐसा काम न करे, जिसे किताब तथा सुन्नत में कुफ़्र कहा गया हो तथा सह़ाबा एवं इमामों ने उसे इस्लाम की सीमा से निकालने वाला काम कहा हो। वो जब तक बड़े कुफ़्र, बड़े शिर्क अथवा बड़े निफ़ाक़ में न पड़े, अपने ईमान पर बाक़ी रहेगा और अवज्ञाकारी एकेश्वरवादी कहलायेगा।
उत्तर/ ज़बान का मामला बड़ा कठिन है। एक शब्द से आदमी इस्लाम में प्रवेश करता है और एक शब्द से निकल भी जाता है। अल्बत्ता, ज़बान की लग़्ज़िशें अलग-अलग प्रकार की होती हैं। कुछ लग़्ज़िशों में कुफ़्र वाले ऐसे शब्द होते हैं, जो ईमान को नष्ट और सद्कर्मों को नष्ट कर देते हैं। उदाहरणतः अल्लाह अथवा उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को गाली देना या ऐसे शब्द जो सम्मानित लोगों तथा अवलिया (निकटवर्ती भक्तों) को रुबूबीयत की विशेषतायें प्रदान करते हैं एवं उनसे मदद माँगने और उनकी ओर भलाई की निस्बत का अर्थ देते हैं। जबकि कुछ लग़ज़िशों में उनकी प्रशंसा के ऐसे शब्द होते हैं, जिनमें अति सीमा तक प्रशंसा होती है, उन्हें मानव-जाति से परे गुणों एवं विशेषताओं वाला बताया जाता है, उनकी क़सम ख़ायी जाती है एवं शरीअत तथा उसके निर्देशों का मज़ाक़ उड़ाया जाता है। जबकि कुछ शब्द अल्लाह के शरई निर्देशों से असहमति तथा तक़्दीर के उन फैसलों से मतभेद के होतें हैं, जो शरीर, धन-माल एवं बाल-बच्चों आदि पर विपत्ति के रूप में सामने आते हैं, जिनसे इन्सान को दुख होता है।
ईमान को हानि पहुँचाने वाले और कम करने वाले महा पापों में से ग़ीबत और चुग़लख़ोरी भी है। इसलिए हमें सावधान रहना चाहिए और हर ऐसे शब्द से ज़बान को बचाना चाहिए जो अल्लाह की शरीअत तथा उसके रसूल की सुन्नत के विरुद्ध हो। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः "إنّ العبد ليتكلمُ بالكلمةِ من رضوان الله لا يُلقي لها بالاً يرفعهُ الله بها درجاتٍ, وإنّ العبد ليتكلّمُ بالكلمةِ من سخط الله لا يُلقي لها بالاً يهوي بها في جهنَّم" (अर्थात:बन्दा अल्लाह को प्रसन्न करने वाला कोई शब्द कहता है और उसपर कोई ध्यान नहीं देता, लेकिन अल्लाह उसके कारण उसके दर्जों को बढ़ा देता है। इसी तरह बन्दा अल्लाह को क्रोधित्त करने वाला कोई शब्द कहता है और उसपर ध्यान नहीं देता, किन्तु उसके कारण जहन्नम में गिर जाता है।) इस हदीस को बुख़ारी ने रिवायत किया है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः मोमिन के कर्मों की कड़ी मृत्यु के पश्चात ही समाप्त होती है। इसका प्रमाण अल्लाह तआला का ये कथन हैः"وَاعْبُدْ رَبَّكَ حَتَّى يَأْتِيَكَ الْيَقِينُ" {अर्थात: तथा अपने पालनहार की वंदना करते रहो, यहाँ तक कि यक़ीन (मृत्यु) आ जाय।} (सूरा अल्-ह़िज्र: 99) यहाँ यक़ीन से आशय मृत्यु है। क्योंकि एक हदीस में है कि जब उस्मान बिन मज़ऊन रज़ियल्लाहु अन्हु की मौत आ गयी, तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः (जहाँ तक उस्मान की बात है, तो अल्लाह की क़सम, उसके पास 'यक़ीन' आ गया है।) इस हदीस को बुख़ारी ने रिवायत किया है। यहाँ 'यक़ीन' मृत्यु के अर्थ में ही है, इसका एक प्रमाण ये भी है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने जीवन काल में कर्मों की कड़ी को कभी रुकने नहीं दिया। यहाँ यक़ीन का अर्थ ईमान का कोई दर्जा नहीं है कि जिसके प्राप्त हो जान के बाद मोमिन को अमल (कर्म) की आवश्यकता नहीं रह जाती हो, जैसा कि कुछ सीधे मार्ग से भटके हुए लोग कहते हैं।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः आकाश एवं धरती तथा उनमें मौजूद एवं उनके बीच उपस्थित सारी चीज़ों को चलाने वाला, एकमात्र अल्लाह है। वह अकेला है। उसका कोई साझी नहीं। उसके अतिरिक्त कोई मालिक नहीं। उसका कोई साझी एवं सहयोगी नहीं। वो पवित्र है। सारी प्रशंसाएं उसी की हैं। अल्लाह तआला ने फरमायाः"قُلِ ادْعُوا الَّذِينَ زَعَمْتُمْ مِنْ دُونِ اللَّهِ لَا يَمْلِكُونَ مِثْقَالَ ذَرَّةٍ فِي السَّمَاوَاتِ وَلَا فِي الْأَرْضِ وَمَا لَهُمْ فِيهِمَا مِنْ شِرْكٍ وَمَا لَهُ مِنْهُمْ مِنْ ظَهِيرٍ" {अर्थात: आप कह दीजिएः उन लोगों को बुला लो, जिन्हें तुमने अल्लाह के सिवा साझी समझ रखा है, वे आसमानों और ज़मीन में कण बराबर वस्तु के भी मालिक नहीं हैं। न उन दोनों में उनकी कोई साझेदारी है और न उनमें से कोई अल्लाह का सहायक है।} (सूरा सबाः 22)
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः जिसने ये आस्था रखा, उसके काफ़िर होने पर उलमा एकमत हैं। क्योंकि उसने रुबूबीयत के मामले में अल्लाह के साझी मौजूद होने का अक़ीदा रखा है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः अल्लाह के सिवा न कोई ग़ैब (परोक्ष) जानता है और न मरे हुए लोगों को जीवित कर सकता है। इसका प्रमाण अल्लाह तआला का ये कथन हैः"وَلَوْ كُنْتُ أَعْلَمُ الْغَيْبَ لَاسْتَكْثَرْتُ مِنَ الْخَيْرِ وَمَا مَسَّنِيَ السُّوءُ" {अर्थात: तथा यदि मैं ग़ैब (परोक्ष) की बातें जानता होता, तो बहुत-से लाभ प्राप्त कर लेता और मुझे कोई हानि नहीं पहुँचती।} (सूरा आराफ़ः 188) जब रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, जो मानव जाति में श्रेष्ठ थे, ग़ैब की बात नहीं जानते थे, तो आप को छोड़ अन्य लोग भला कैसे जान सकते हैं?
चारों इमाम इस बात पर एकमत हैं कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के विषय में ग़ैब जानने अथवा मरे हुए लोगों को जीवित करने का दावा करने वाला इस्लाम से निकल जाता है। क्योंकि उसने अल्लाह को झुठलाया, जिसने अपने रसूल को ये आदेश दिया था कि जिन्नों तथा इन्सानों से कह दें, "قُلْ لَا أَقُولُ لَكُمْ عِنْدِي خَزَائِنُ اللَّهِ وَلَا أَعْلَمُ الْغَيْبَ وَلَا أَقُولُ لَكُمْ إِنِّي مَلَكٌ إِنْ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَى إِلَيَّ" {अर्थात: आप कह दें, मैं ये नहीं कहता कि मेरे पास अल्लाह के ख़ज़ाने हैं, और न मैं ग़ैब (परोक्ष) जानता हूँ, तथा मैं तुमसे ये भी नहीं कहता कि मैं फ़रिश्ता हूँ, मैं तो उसी का अनुसरण करता हूँ, जो मेरी तरफ़ वह़्य की जाती है।} (सूरा अल्-अन्आमः 50) तथा अल्लाह तआला ने अन्य स्थान में फरमायाः"إِنَّ اللَّهَ عِنْدَهُ عِلْمُ السَّاعَةِ وَيُنَزِّلُ الْغَيْثَ وَيَعْلَمُ مَا فِي الْأَرْحَامِ وَمَا تَدْرِي نَفْسٌ مَاذَا تَكْسِبُ غَدًا وَمَا تَدْرِي نَفْسٌ بِأَيِّ أَرْضٍ تَمُوتُ إِنَّ اللَّهَ عَلِيمٌ خَبِيرٌ" {अर्थात: निःसंदेह अल्लाह के पास प्रलय का ज्ञान है, वही वर्षा उतारता है, तथा वही जानता है कि गर्भाशयों में क्या है तथा कोई प्राणी ये नहीं जानता कि कल क्या कमायेगा और न कोई प्राणी ये जानता है कि धरती के किस भाग में मरेगा। निःसंदेह, अल्लाह जानने वाला और ख़बर रखने वाला है।} (सूरा लुक़मानः 34) चुनांचे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ग़ैब (परोक्ष) की बातें उतनी ही जानते थे, जितनी अल्लाह ने वह़्य द्वारा बतायी और सिखायी थी। साथ ही नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कभी, अपने जीवन काल में मरने वाले किसी साथी या संतान-संतति को जीवित करने का दावा भी नहीं किया है। एवं दूसरों को जीवित करने की बात कैसे की जा सकती है?
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः हर आज्ञाकारी एवं परहेज़गार बन्दा अल्लाह का वली है। इसका प्रमाण अल्लाह तआला का ये कथन हैः "أَلَا إِنَّ أَوْلِيَاءَ اللَّهِ لَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُونَ ، الَّذِينَ آَمَنُوا وَكَانُوا يَتَّقُونَ" {अर्थात: सुन लो, वास्तविकता ये है कि अल्लाह के अवलिया को न कोई डर होता है और न वे दुखी होते हैं। जो ईमान लाये तथा आज्ञाकारी किया करते थे।) (सूरा यूनुसः 62-63) वली बनने का सौभाग्य कुछ विशेष मोमिनों को प्राप्त हो, शेष को नहीं, ऐसा नहीं है। परन्तु वलायत की अलग-अलग श्रेणियाँ होती हैं। 'तक़वा' से आशय है, अल्लाह और उसके रसूल ने जिन कार्यों का आदेश दिया है, उन्हें करना और जिन कार्यों से रोका है, उनसे रुक जाना। इस प्रकार प्रय्तेक मोमिन को अपने ईमान एवं आज्ञाकारी के मुताबिक़ विलायत प्राप्त होती है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः ये आयत अवलिया को पुकारने और उनसे सहायता अथवा शरण माँगने को वैध क़रार नहीं देती। इसमें केवल उनके पद एवं सम्मान को बयान किया गया है कि उन्हें इस लोक एवं प्रलोक में कोई भय होगा, न प्रलोक में कोई दुख। इसमें एक तरह से अल्लाह को हर प्रकार से एक मानकर और उसकी तथा उसके रसूल की आज्ञाकारी करके विलायत का दर्जा प्राप्त करने की प्रेरणा दी गयी है, ताकि अल्लाह के इस कथन में मौजूद शुभ सूचना को प्राप्त किया जा सकेः"لَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُونَ" {अर्थात: उन्हें न कोई भय होगा और वे दुखी होंगे।} जबकि अल्लाह के अलावा अन्य को पुकारना शिर्क है, जैसा कि पीछे गुज़र चुका है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः नबियों को छोड़ अन्य औलिया छोटे-बड़े गुनाहों से पवित्र नहीं होते। देखा गया है कि कई बड़े औलिया और सत्कर्मियों से भी कुछ लग़्जिशें हुई हैं, परन्तु उनकी विशेषता ये होती है कि वे तुरंत तौबा और अल्लाह कि निकटता प्राप्त करने के प्रयास में लग जाते हैं और फलस्वरूप अल्लाह भी उन्हें माफ़ कर देता है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः सही बात ये है ख़ज़िर भी एक नबी थे, जो हमारे नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से पहले मर चुके थे। क्योंकि अल्लाह तआला ने कहा हैः"وَمَا جَعَلْنَا لِبَشَرٍ مِنْ قَبْلِكَ الْخُلْدَ أَفَإِنْ مِتَّ فَهُمُ الْخَالِدُون" {अर्थात: हमने आपसे पहले किसी इन्सान को हमेशा नहीं रखा, क्या यदि आप मर जाते हैं, तो वे हमेशा जीवित रहेंगे?} (सूरा अल्-अम्बियाः 34) फिर यदि वो जीवित होते, तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अनुसरण और आपके साथ जिहाद करते। क्योंकि हमारे नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जिन्न एवं इन्सान दोनों समुदायों की ओर नबी बनाकर भेजे गये थे। अल्लाह तआला ने फरमायाः "قُلْ يَا أَيُّهَا النَّاسُ إِنِّي رَسُولُ اللَّهِ إِلَيْكُمْ جَمِيعًا" {अर्थात: (ऐ नबी) आप कह दीजिएः ऐ लोगो, मैं तुम सब की ओर रसूल बनाकर भेजा गया हूँ।} (सूरा अल्-आराफ़ः 158) तथा अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः"أرأيتم ليلتكم هذه فإن رأس مئة سنة منها لا يبقى ممن هو على ظهر الأرض أحد" {अर्थात:क्या तुमने आज की इस रात को देखा, इसके पूरे सौ साल के बाद धरती के ऊपर मौजूद लोगों में से कोई जीवित नहीं रहेगा।) इस हदीस को बुख़ारी ने रिवायत किया है। इस हदीस से पता चलता है कि ख़ज़िर मर चुके हैं। अतः वो न किसी की पुकार सुनते हैं और न रास्ते से भटके हुए आदमी को राह दिखाते हैं। जहाँ तक उनसे कुछ लोगों की मुलाक़ात, उन्हें देखने, उनके पास बैठने और उनसे रिवायत करने की कहानियों की बात है, तो ये सब भ्रम और असत्य बातें हैं। ज्ञान, बुद्धि एवं समझ-बूझ वाले लोग कभी इनसे नाता नहीं रखते।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः मरे हुए लोग सुनते नहीं हैं। क्योंकि अल्लाह तआला ने फरमायाः"وَمَا أَنْتَ بِمُسْمِعٍ مَنْ فِي الْقُبُور" {अर्थात: निःसंदेह आप उन्हें सुना नहीं सकते, जो क़ब्रों में हैं।} (सूरा फ़ातिरः 22) तथा एक और स्थान में फरमायाः"إِنَّكَ لَا تُسْمِعُ الْمَوْتَى" {अर्थात: निःसंदेह आप मरे हुए लोगों को सुना नहीं सकते।} (सूरा अन्-नम्लः 80) इसी प्रकार वे पुकारने वाले की पुकार नहीं सुनते। अल्लाह तआला ने फरमायाः"وَالَّذِينَ تَدْعُونَ مِنْ دُونِهِ مَا يَمْلِكُونَ مِنْ قِطْمِيرٍ ،إِنْ تَدْعُوهُمْ لَا يَسْمَعُوا دُعَاءَكُمْ وَلَوْ سَمِعُوا مَا اسْتَجَابُوا لَكُمْ وَيَوْمَ الْقِيَامَةِ يَكْفُرُونَ بِشِرْكِكُمْ وَلَا يُنَبِّئُكَ مِثْلُ خَبِيرٍ" {अर्थात: जिन्हें तुम अल्लाह के सिवा पुकारते हो खजूर की गुठली के छिल्के के भी मालिक नहीं हैं। यदि तुम उन्हें पुकारो, तो वे तुम्हारी पुकार सुन नहीं सकते, और यदि सुन भी लें तो तुम्हारा जवाब नहीं दे सकते। तथा प्रलय के दिन वे तुम्हारे शिर्क का इन्कार कर देंगे। वस्तु-स्थिति की ऐसी सही ख़बर तुम्हें एक ख़बर रखने वाले के सिवा कोई नहीं दे सकता} (सूरा फ़ातिरः 13-14) तथा अल्लाह तआला ने फरमायाः"وَمَنْ أَضَلُّ مِمَّنْ يَدْعُو مِنْ دُونِ اللَّهِ مَنْ لَا يَسْتَجِيبُ لَهُ إِلَى يَوْمِ الْقِيَامَةِ وَهُمْ عَنْ دُعَائِهِمْ غَافِلُونَ" {अर्थात: कुमार्ग कौन हो सकता है, जो अल्लाह को छोड़कर ऐसे लोगों को पुकारे, जो प्रलय दिवस् तक उसकी पुकार का जवाब नहीं दे सकते, और वे उनकी पुकार से अचेत हों।} (सूरा अल्-अह़क़ाफ़ः 5)
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः ये जिन्नों में से शैतानों की आवाज़ें हैं, जो अज्ञान लोगों को इस भ्रम में डालने के प्रयास में रहते हैं कि ये क़ब्र में मद्फून व्यक्तियों की आवाज़ है, ताकि उन्हें आज़माइश में डाल सकें, उनके धर्म में संदेह पैदा कर सकें और उन्हें कुमार्ग कर सकें। जबकि क़ब्रों में मौजूद लोग न सुन सकते हैं और न पुकारने वालों का जवाब दे सकते हैं। ये बात स्पष्ट रूप से क़ुर्आन से सिद्ध है। अल्लाह तआला ने फरमायाः"إِنَّكَ لَا تُسْمِعُ الْمَوْتَى" {अर्थात: :संदेह आप मरे हुए लोगों को सुना नहीं सकते।} (सूरा अन्-नम्लः 80) तथा एक जगह फरमायाः"إِنْ تَدْعُوهُمْ لَا يَسْمَعُوا دُعَاءَكُمْ" {अर्थात: यदि तुम उन्हें पुकारोगे, तो वे तुम्हारी फ़रियाद सुन नहीं सकते।} (सूरा फ़ातिरः 14) तथा एक जगह फरमायाः"وَمَا أَنْتَ بِمُسْمِعٍ مَنْ فِي الْقُبُورِ" {अर्थात: आप ऐसे लोगों को सुना नहीं सकते जो क़ब्रों में पड़े हुए हों।} (सूरा फ़ातिरः 22) भला जवाब देंगे भी तो कैसे, वे तो बरज़ख़ी जीवन में होते हैं, उनका दुनिया वालों से कोई सम्पर्क नहीं होता। अल्लाह तआला ने फरमायाः "وَهُمْ عَنْ دُعَائِهِمْ غَافِلُونَ" {अर्थात: वे उनकी पुकार से अचेत हैं।} (सूरा अल्-अह़्क़ाफ़ः 5)
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः वे पुकारने वाले को जवाब नहीं देते तथा पुकारने वालों और सहायता माँगने वालों का जवाब देने की शक्ति भी नहीं रखते। अल्लाह तआला ने फरमायाः"وَالَّذِينَ تَدْعُونَ مِنْ دُونِهِ مَا يَمْلِكُونَ مِنْ قِطْمِيرٍ، إِنْ تَدْعُوهُمْ لَا يَسْمَعُوا دُعَاءَكُمْ وَلَوْ سَمِعُوا مَا اسْتَجَابُوا لَكُمْ وَيَوْمَ الْقِيَامَةِ يَكْفُرُونَ بِشِرْكِكُمْ" {अर्थात: {जिन्हें तुम अल्लाह के सिवा पुकारते हो खजूर की गुठली के छिल्के के भी मालिक नहीं हैं। यदि तुम उन्हें पुकारो, तो वे तुम्हारी पुकार सुन नहीं सकते, और यदि सुन भी लें तो तुम्हारा जवाब नहीं दे सकते। तथा प्रलय के दिन वे तुम्हारे शिर्क का इन्कार कर देंगे।} (सूरा फ़ातिरः13-14) वो व्यक्ति बड़ा ही अभागा है , जिसे शैतान तथा गुमराही के प्रचारकों ने धोखे में डाल दिया और मरे हुए तथा क़ब्र में मौजूद नबियों, वलियों एवं सत्कर्मियों को पुकारने को सुन्दर बनाकर पेश किया। अल्लाह तआला ने फरमाया हैः"وَمَنْ أَضَلُّ مِمَّنْ يَدْعُو مِنْ دُونِ اللَّهِ مَنْ لَا يَسْتَجِيبُ لَهُ إِلَى يَوْمِ الْقِيَامَةِ وَهُمْ عَنْ دُعَائِهِمْ غَافِلُونَ" {अर्थात: उससे बड़ा कुमार्ग कौन हो सकता है, जो अल्लाह को छोड़कर ऐसे लोगों को पुकारे जो प्रलय के दिन तक उसकी पुकार का जवाब नहीं दे सकते और वे उनकी पुकार से बेख़बर हों।} (सूरा अल्-अह़्क़ाफ़: ५)
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः इस आयत में 'जीवित' से तात्पर्य यह है कि वे नेमतों वाली बरज़ख़ी ज़िन्दगी जी रहे हैं, जो सांसारिक जीवन की तरह नहीं है। क्योंकि शहीदों के प्राणों को जन्नत में नेमतों से सम्मानित किया जाता है। यही कारण है कि अल्ला तआला ने फरमायाः"عِنْدَ رَبِّهِمْ يُرْزَقُونَ" {अर्थात: वे अपने पालनहार के पास जीविका दिये जाते हैं।} इस तरह वे दूसरी दुनिया में होते हैं, उनकी वहाँ की ज़िन्दगी और परिस्थितियाँ यहाँ के जीवन और परिस्थितियों के समान नहीं हैं। चुनांचे वे पुकारने वाले की पुकार नहीं सुनते और न उनका जवाब देते हैं, जैसा कि पीछे कई आयतों द्वारा सिद्ध किया जा चुका है। इसलिए इन दोनों के बीच कोई टकराव नहीं है। इसीलिए आयत में हैः {उन्हें रोज़ी (जीविका) दी जाती है।} ये नहीं है किः {वे रोज़ी देते हैं।}
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः ये बड़ा शिर्क है। क्योंकि अल्लाह तआला ने फरमायाः"فَصَلِّ لِرَبِّكَ وَانْحَرْ" {अर्थात: आप अपने पालनहार के लिए नमाज़ पढ़िए और क़ुर्बानी कीजिए।} (सूरा अल्-कौसरः 2) तथा फरमायाः"قُلْ إِنَّ صَلَاتِي وَنُسُكِي وَمَحْيَايَ وَمَمَاتِي لِلَّهِ رَبِّ الْعَالَمِينَ، لَا شَرِيكَ لَهُ وَبِذَلِكَ أُمِرْتُ وَأَنَا أَوَّلُ الْمُسْلِمِينَ" {अर्थात: ऐ नबी, आप कह दीजिएः निसंदेह, मेरी नमाज़, मेरी क़ुर्बानी (बलि), मेरा जीना एवं मेरा मरना अल्लाह के लिए है, जो सारे जहाँ का पालनहार है। उसका कोई शरीक नहीं। मुझे इसीका आदेश दिया गया है और मैं सबसे पहला आज्ञाकारी हूँ।} (सूरा अल्-अन्आमः 162-163) तथा अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः "لعن الله من ذبح لغير الله" (अर्थात: अल्लाह की लानत हो उस व्यक्ति पर जो अल्लाह के सिवा किसी और के लिए बलि दे।) इस हदीस को मुस्लिम ने रिवायत किया है।
सिद्धांत ये है कि जिस कार्य को अल्लाह के लिए करना वंदना है, उसे अल्लाह के अतिरिक्त किसी और के लिए करना शिर्क है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः ये बड़ा शिर्क है। क्योंकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः"من نذر أن يطيع الله فليطعه ومن نذر أن يعصي الله فلا يعصه" (अर्थात: (जो अल्लाह की आज्ञाकारी की मन्नत माने उसे चाहिए कि उसका पालन करे तथा जो अल्लाह की अवज्ञा की मन्नत माने वो उसकी अवज्ञा न करे। इसे बुख़ारी ने रिवायत किया है। मन्नत एक कथन सम्बन्धी एवं मन्नत मानने वाले के वचन के अनुसार आर्थिक अथवा शारीरिक उपासना है। इसमें दरअसल मन्नत मानने वाला किसी वांछित वस्तु की प्राप्ति अथवा किसी भय वाली वस्तु से बचाव के लिए या किसी नेमत के शुक्र अथवा किसी विपत्ति से मुक्ति के धन्यवाद के तौर पर, ऐसी चीज़ को अपने ऊपर अनिवार्य कर लेता है जो पहले अनिवार्य नहीं थी। ये उन इबादतों में से है, जिन्हेें अल्लाह के सिवा किसी अन्य के लिए करना जायज़ नहीं है। क्योंके अल्लाह तआला मन्नत पूरी करने वालों की प्रशंसा की है। अल्लाह ने कहाः"يُوفُونَ بِالنَّذْرِ وَيَخَافُونَ يَوْمًا كَانَ شَرُّهُ مُسْتَطِيرًا" {अर्थात: वे मन्नत पूरी करते हैं और उस दिन से डरते हैं, जिसकी बुराई चारों तरफ़ फैली हुई होगी।} (सूरा अल्-इन्सानः 7)
सिद्धांत ये कहता है कि हर वो कार्य जिसकी प्रशंसा अल्लाह तआला ने की है, इबादत में सम्मिलित है और जो कार्य इबादत (उपासना) हो, उसे अल्लाह के सिवा अन्य के लिए करना शिर्क है।
उत्तर: शरण मांगने के तीन प्रकार हैं। तीनों को जानने के बाद यह स्पष्ट हो जाएगा कि अल्लाह के सिवा किसी कि शरण मांग सकते हैं अथवा नहीं। ये तीनों प्रकार इस तरह हैंः
1. तौह़ीद तथा वंदना युक्त शरण माँगनाः ये हर उस वस्तु से अल्लाह की पनाह माँगना है, जिससे आप डरते हों। अल्ला तआला ने फरमायाः"لْ أَعُوذُ بِرَبِّ الْفَلَقِ ، مِنْ شَرِّ مَا خَلَقَ" अर्थात: {आप कह दीजिएः मैं प्रातः के रब की शरण माँगता हूँ, हर उस वस्तु की बुराई से जो उसने पैदा की है।} (सूरा अल्-फ़लक़) तथा फरमायाः"قُلْ أَعُوذُ بِرَبِّ النَّاسِ ، مَلِكِ النَّاسِ ، إِلَهِ النَّاسِ ، مِنْ شَرِّ الْوَسْوَاسِ الْخَنَّاسِ" {अर्थात: आप कह दीजिएः मैं शरण माँगता हूँ, इन्सानों के रब, इन्सानों के बादशाह, इन्सानों के वास्तविक पूज्य की, उस वसवसे (भ्रस) डालने वाले की बुराई से जो बार-बार पलट कर आता है।} (सूरा अन्-नास)
2. मुबाह़ (वैध) शरण माँगनाः किसी जीवित तथा उपस्थित इन्सान का शरण ऐसे मामले में माँगना है, जिसमें वो शरण देने का सामर्थ्य रखता हो। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः"فمن وجد ملجأ أو معاذاً فليفعل به" (अर्थात: जिसे कोई शरण अथवा पनाह की जगह मिल जाये, वो शरण ले ले।) इस हदीस को मुस्लिम ने रिवायत किया है।
3. शिर्किया शरण माँगनाः इसका तथ्य है, अल्लाह के सिवा अन्य से ऐसे मामले में शरण माँगना, जिसमें शरण देने की शक्ति अल्लाह के सिवा कोई नहीं रखता। अल्लाह तआला ने फरमायाः"وأنه كان رجال الانس يعوذون برجال من الجن فزادوهم رهقا" {अर्थात: और ये कि इन्सानों में से कुछ लोग जिन्नों में से कुछ लोगों की पनाह माँगा करते थे, इस प्रकार उन्होंने जिन्नों का अभिमान और ज़्यादा बढ़ा दिया।} (सूरा अल्-जिन्नः 6)
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः मैं वही कहूँगा, जो रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मुझे सिखाया है। आपने फरमायाः (जो किसी पड़ाव में उतरकर ये दुआ पढ़ेः
"أعوذ بكلمات الله التامات من شر من خلق"
(मैं अल्लाह के पूर्ण शब्दों की पनाह माँगता हूँ, उसकी पैदा की हुई वस्तुओं की बुराई से।) तो उस मन्ज़िल में जब तक रहेगा, उसे कोई वस्तु हानि नहीं पहुँचा सकेगी।) इस हदीस को मुस्लिम ने रिवायत किया है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः ये बड़ा शिर्क है। ऐसा करने वाला व्यक्ति यदि मृत्यु से पहले तौबा न करे, तो उसके सारे कर्म अकारथ चले जायेंगे, वह इस्लाम की सीमा से बाहर हो जायेगा तथा सदैव के लिए विनाश का शिकार हो जायेगा। क्योंकि अल्लाह तआला ने फरमायाः"أَمَّنْ يُجِيبُ الْمُضْطَرَّ إِذَا دَعَاهُ وَيَكْشِفُ السُّوءَ" {अर्थात: कौन है जो दुआ सुनता है, जबकि वो उसे पुकारे और उसकी परेशानी को दूर करता है?} (सूरा अन्-नम्लः 62) अर्थात, अल्लाह के सिवा कोई उसकी फ़रियाद सुनने वाला और विपत्ति दूर करने वाला नहीं है।इसीलिए अल्लाह ने उसके सिवा किसी और की पनाह माँगने वालों को सवालिया लहजे में फटकार लगायी है। दूसरी बात यह है कि अल्लाह से फरियाद करना वंदना है l अल्लाह तआला ने फरमायाः"إِذْ تَسْتَغِيثُونَ رَبَّكُمْ" {अर्थात: उस समय को याद करो जब तुम अपने रब से फरियाद कर रहे थे।} (सूरा अल्-अन्फ़ालः 9) और सह़ीह़ बुखारी में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः (मैं तुममें से किसी को क़यामत के दिन इस हाल में आता हुआ न पाऊँ कि उसकी गरदन में ऊँट हो, जो बिलबिला रहा हो और वो परेशान होकर कह रहा होः ऐ अल्लाह के रसूल, मेरी सहायता कीजिए, तो मैं कहूँ, मैंने तुम्हें पहले ही वस्तुस्थिति से अवगत कर दिया था कि मैं अल्लाह के मुक़ाबले में तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकता। मैं तुममें से किसी को प्रलय के दिन इस हाल में न आता हुआ कदापि न पाऊँ कि उसकी गरदन में घोड़ा हो, जो हिनहिना रह हो और वो मुझसे कह रहा होः ऐ अल्लाह के रसूल, मेरी फ़रियाद सुनिए और मुझे कहना पड़े कि मैंने तुम्हें पहले ही वस्तुस्थिति से अवगत कर दिया था कि मैं अल्लाह के मुक़ाबले में तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकता।) इस हदीस को बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है। सपष्ट है कि हम जीवित एवं उपस्थित व्यक्ति से, जो हमारे सामने मौजूद हो, उन मामलात में सहायता तलब कर सकते हैं, जो उनकी क्षमता के अन्दर हैं। जीवित व्यक्ति से फ़रियाद करने का अर्थ है, उससे उस काम में सहायता तलब करना, जो इन्सान के बस में हो। जैसा कि एक व्यक्ति ने मूसा अलैहिस्सलाम से दोनों के साझा दुश्मन के ख़िलाफ़ मदद माँगी थी। अल्लाह तआला ने फरमायाः"فَاسْتَغَاثَهُ الَّذِي مِنْ شِيعَتِهِ عَلَى الَّذِي مِنْ عَدُوِّهِ" {अर्थात: उसकी क़ौम के व्यक्ति ने दुश्मन क़ौम के व्यक्ति के विरुद्ध उसे मदद के लिए पुकारा।} (सूरा अल्-क़ससः 15) जहाँ तक ऐसे जिन्नों और इन्सानों से फरियाद करने की बात है, जो मौजूद न हों, तो सारे इमाम इस बात पर एकमत हैं कि यह ग़लत, ह़राम और शिर्क है। यही हाल क़ब्र में मौजूद लोगों का भी है।
उत्तर: तो आप कहिए: ये जायज़ नहीं है। और इसपर पूरी उम्मत की आम सहमति है कि अल्लाह के नामों के अलावा किसी और के नाम के साथ 'अब्द' शब्द का प्रयोग हराम है। यदि अब्दुन्नबी, अब्दुर्रसूल, अब्दुलहुसैन और अब्दुलकाबा आदि नाम किसी का है, तो उसे बदलना अनिवार्य है। अल्लाह के निकट सबसे प्रिय नाम अब्दुल्लाह एवं अब्दुर्रहमान है। जैसा कि हदीस मैं आया हैः (निःसंदेह अल्लाह के निकट सबसे प्रिय नाम अब्दुल्लाह एवं अब्दुर्रहमान है।) इस हदीस को इमाम मुस्लिम ने बयान किया है। अल्लाह के अलावा यदि किसी और नाम के साथ 'अब्द' शब्द लगाकर नाम रखा गया हो, तो उस नाम को बदलना अनिवार्य है, परन्तु यह जीवित व्यक्तियों के संबंध में है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिए: ये शिर्क है। क्योंकि अल्लाह के अंतिम दूत का कथन है:"من علق تميمة فقد أشرك" (अर्थात: जिसने तावीज़ लटकायी,उसने शिर्क किया।) इस हदीस को इमाम अहमद ने अपनी किताब मुसनद में बयान किया है। और आप ﷺ का यह कथन भी है कि "لا يبقينَّ في رقبة بعيرقلادة من وتر أو قلادة إلا قطعت" (अर्थात: किसी ऊंट की गर्दन में, जब भी कोई ताँत की हार या आम हार नज़र आये तो उसे काट दिया जाय।) इसे इमाम बुखारी ने बयान किया है। और एक हदीस में है:"من عقد لحيته أو تقلّد وتراً أو استنجى برجيع دابة أو عظم فإنّ محمداً برئٌ منه" (अर्थात:जो व्यक्ति अपनी दाढ़ी पर गांठ बांधे या ताँत की हार पहने या पशुओं के गोबर या हड्डी से पवित्रता अर्जन करे, मुहम्मद उससे बरी है।) इस हदीस को इमाम अहमद ने रिवायत किया है। एक अन्य हदीस में आप ﷺ का कथन है:"إنّ الرٌّقى والتمائم والتّولة شرك" (अर्थात:निःसंदेह झाड़ फूंक,तावीज और जादू टोना शिर्क है।) इस हदीस को इमाम अबू दाऊद ने रिवायत किया है। एक अन्य हदीस में आप ﷺ ने कहा:"من علق تميمة فلا أتم الله له" (अर्थात:जो तावीज लटकाये, अल्लाह उसकी मनोकामना पूरी न करे।) इसे इमाम इब्ने हिब्बान ने अपनी किताब सहीह में बयान किया है। सच ये है कि अंधविश्वास और ख़ुराफ़ात में पड़ने वाला व्यक्ति असफल है। क्योंकि एक हदीस में है"من تعلق شيئاً وكل إليه" (अर्थात: जिसने किसी चीज़ पर भरोसा किया, उसे उसीके ह़वाले कर दिया जाता है।)
अरबी में "तिवला" एक प्रकार के जादू को कहते हैं, जिसके बारे में लोगों का मानना है कि इसके माध्यम से किसी भी व्यक्ति को उसकी पत्नी का प्यारा बनाया जा सकता है अथवा उन दोनों के बीच घृणा पैदा की जा सकती है। पति पत्नी के अलावा अन्य मित्रों और रिश्तेदारों के बीच घृणा पैदा करने के लिए भी इसका सहारा लिया जाता है।
"तमाइम" उन वस्तुओं को कहते हैं, जिन्हें बच्चों के शरीर में लटकाया जाता है, ताकि उन्हें बुरी नजर अथवा र्ष्या से बचाया जा सके।
अरबी शब्द "तमीमा" का अर्थ बताते हुए अल्लामा मुन्ज़िरी ने कहा है: (तमीमा उस धागा को कहते हैं, जिसे अरबवासी इस आस्था के साथ लटकाते थे कि वह उन्हें विपत्तियों से बचायेगा।) यह सरासर कुमार्गता तथा अंधविश्वास है। क्योंकि इसमें न तो स्वभाविक रूप से विपत्ति से बचाने की शक्ति है और न शरई ऐतबार से इसे विपत्तियों से छुटकारे का माध्यम बताया गया है। इसी प्रकार, कंगन पहनना तथा पुराने कपड़े और तावीज़ लटकाना भी शिर्क है, चाहे मनुष्य के शरीर में हो, पशुओं में हो, गाड़ी में हो अथवा घर में।
उत्तर/ तो आप कह दीजिए: "तबर्रुक" का अर्थ है, बरकत प्राप्त करने के लिए मनुष्य के ऐसे कार्यों को माध्यम बनाना, जिन्हें भलाई तथा प्रिय वस्तु की प्राप्ति और मनोकामना की पूर्ति के लिए किया जाता है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः "तबर्रुक" के दो प्रकार हैं:
1. वैध तबर्रुकः जिसके वैध होने तथा बरकत लेने वाले को लाभ मिलने का प्रमाण क़ुर्आन एवं सुन्नत में मौजूद हो। ज्ञात हो कि किसी वस्तु में बरकत होने का अक़ीदा रखना उसी वक़्त जायज़ होगा, जब क़ुर्आन तथा सुन्नत से सिद्ध हो।इसमें अक़्ली घोड़ा दौड़ाने की कोई गुन्जाइश नहीं है। अमुक वस्तु बरकत वाली है और उसमें बरकत है, ये बात हम उसी समय जान सकते हैं, जब इस संसार के उत्पत्तिकार तथा तत्त्व ज्ञान अल्लाह अथवा उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने बताया हो। बरकत तथा भलाई क़ुर्आन तथा सुन्नत के अनुसरण में ही निहित है। केवल उन्हीं दोनों से हम जान सकते हैं कि मुबारक हस्तियाँ कौन-कौन सी हैं और उनसे बरकत कैसै प्राप्त की जा सकती है? जैसे अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के व्यक्तित्व और उससे अलग होने वाली चीज़ों, उदाहरणतः थूक और बाल आदि और उससे मिली हुई चीज़ों, उदाहरणतः वस्त्र से बरकत लेना। लेकिन ये तबर्रुक आपके व्यक्तित्व तथा आपकी उन वस्तुओं के साथ ही विशिष्ट है, जिनका आपसे संबंध होना साबित हो। जबकि बहुत से ख़ुराफाती लोग झूठ का सहारा लेकर दावा करते रहते हैं कि हमारे पास आपके बाल हैं या आपका कोई वस्त्र है। जबकि मुसलमानों की अक़्लों के साथ खिलवाड़, उनके धर्म को बिगाड़ने का प्रयास तथा उनकी दुनिया को लूटने के प्रयत्न के सिवा इन वस्तुओं की कोई वास्तविकता नहीं होती।
द्वितीय प्रकार: नाजायज़ बरकत लेना; इस प्रकार का बरकत लेना हराम तथा शिर्क तक पहुँचाने वाला है। जैसे नेक एवं सत्कर्म करने वाले व्यक्तियों के व्यक्तित्व अथवा उनसे संबंधित वस्तुओं से बरकत लेना, उनकी क़ब्रों के पास नमाज़ और दुआ द्वारा बरकत लेना एवं क़ब्रों की मिट्टी को दवा मानकर उनसे बरकत लेना। किसी जगह, पत्थर एवं पेड़ की श्रेष्ठता में विश्वास रखते हुए उससे बरकत लेने, तवाफ़ करने अथवा पुराने कपड़े लटकाने का भी यही हुक्म है। जबकि ये मालूम है कि काबा शरीफ़ के रुक्न (एक कोना) और वहां पर स्थापित हजरे अस्वद (काले पत्थर) को छोड़ अन्य किसी भी वस्तु को लाभदायक अथवा पवित्र मान कर चूमना, श्रद्धा के साथ छूना अथवा तवाफ़ करना मना है। जो व्यक्ति यह विश्वास रखे कि इन वस्तुओं के साथ ऐसा करने से खुद ये वस्तुएं बरकत प्रदान करती हैं तो उसका यह कार्य बड़ा शिर्क है और जो व्यक्ति उनको बरकत का कारण समझे तो उसका ये कार्य छोटा शिर्क है।
उत्तर/ तब आप कहिए: यह अकीदा और यह कार्य बिद्अत (अर्थात धर्म की मूल शिक्षाओं से बाहर की वस्तु) है। क्युंकि पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथी, जो उम्मत के सबसे जानकार, सबसे ज्ञानी, सद्कर्मों के सब से अधिक अभिलाषी तथा प्रतिष्ठावानों की प्रतिष्ठा से सबसे ज़्यादा परिचित थे, उन्होंने अबू बक्र, उमर, उस्मान और अली रज़ियल्लाहु अन्हुम की छोड़ी हुई वस्तुओं से बरकत नहीं ली तथा उनकी यादगारों की खोज में नहीं रहे, हालाँकि वे नबियों के पश्चात उम्मत के सबसे प्रतिष्ठित लोग थे। वे जानते थे कि यह कार्य नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ खास है।यही कारण है कि उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने अतिशयोक्ति के भय से, उस पेड़ को कटवा दिया था, जिसके नीचे बैअते रि़ज़वान सम्पन्न हुई थी। दर असल सलफ़े सालेह सद्कर्मों के सबसे ज्यादा अभिलाषी थे, इसलिए अगर नेक लोगों की यादगारों की खोज करना कोई नेक काम होता, तो वे हमसे पहले इसे कर गुज़रते।
उत्तर/ तो आप कह दीजिए कि यह शिर्क है। क्योंकि इमाम अह़मद और तिर्मिज़ी ने ह़ज़रत अबू वाक़िद लैसी रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है, वह कहते हैं कि: हम अल्लाह के रसूल ﷺ के साथ हुनैन युद्ध के लिए निकले, उस समय हम नए-नए मुसलमान हुए थे। उन दिनों मुश्रिक (अनेकेश्वरवादी) लोग एक बैरी के वृक्ष को पवित्र मानकर उसके पास तपस्या करते और उसपर अपने युद्ध के शस्त्रों को लटकाते थे। वह वृक्ष 'ज़ाते अन्वात' नाम से प्रसिद्ध था। ह़ज़रत अबू वाक़िद फ़रमाते हैं कि उस बैरी के वृक्ष के पास से हमारा गुज़र हुआ तो हमने कहा: हे अल्लाह के रसूल ﷺ, हमारे लिए भी एक 'ज़ाते अन्वात' बना दीजिए। तो अल्लाह के रसूल ﷺ ने फ़रमाया: (अल्लाहु अकबर (अल्लाह सबसे बड़ा है)! ये तो बनी इस्राईल के लक्षणों में से है। उस महान अल्लाह की सौगंध, जिसके हाथ में मेरी प्राण है, तुम लोगों ने ठीक वैसा ही कहा है, जैसा बनी इस्राईल ने कहा था। उन्होंने मूसा अलैहिस्सलाम से कहा थाः"اجْعَلْ لَنَا إِلَهًا كَمَا لَهُمْ آَلِهَةٌ قَالَ إِنَّكُمْ قَوْمٌ تَجْهَلُونَ" {अर्थात: हमारे लिए भी कोई माबूद (पूज्य) बना दीजिए जैसे कि मुश्रिकों के बहुत-से पूज्य हैं। तब मूसा (अलैहिस्सलाम) ने कहा था कि तुम सब निपट नादान हो।} {अल-आराफ़: 138} और तुम लोग भी बनी इस्राईल के लक्षणों को अवश्य अपनालोगे)।
उत्तर/ आप कहिए: अल्लाह के अतिरिक्त किसी और की सौगंध खाना जायज़ नहीं है। क्योंकि नबी सलल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा है:"من كان حالفاً فليحلف بالله أو ليصمت" (अर्थात: जो व्यक्ति सौगंध खाना चाहता हो, वह अल्लाह की ही सौगंध खाए, अन्यथा चुप रहे) इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अल्लाह के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं की सौगंध खाने से मना किया है। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः"لا تحلفوا بآبائكم ولا بالطواغي" (अर्थात: तुम अपने बाप-दादों की सौगंध न खाओ, न अन्य पूज्यों की सौगंध खाओ।) इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है। तवाग़ी, ताग़ूत का बहुवचन है। बल्कि आपने सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इसे शिर्क घोषित किया है। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का शुभ उपदेश हैः "من حلف بغير الله فقد كفر أو أشرك" (अर्थात: जिसने अल्लाह को छोड़ किसी अन्य वस्तु की सौगंध खायी, उसने कुफ़्र किया अथवा शिर्क किया।) आपने यह भी फ़रमयाः"من حلف بالأمانة فليس منا" (अर्थात: जिसने धरोहर की सौगंध खायी, वह हममें से नहीं।) इसे इमाम अह़मद, इब्ने ह़िब्बान और ह़ाकिम ने सह़ीह सनद से रिवायत किया है।
इसलिए मुसलमान को नबी, वली, पद, धरोहर अथवा काबा आदि सृष्टियों की सौगन्ध खाने से डरना चाहिए।
उत्तर/ तो आप कह दीजिए: ऐसा विश्वास रखना जायज़ (उचित) नहीं है। क्योंकि नक्षत्र आदि मनुष्य के जीवन अथवा इस ब्राह्माण्ड के लाभ अथवा हानि में किसी भी रूप से प्रभावशाली नहीं हैं। और जादूगरों तथा कर्तब बाज़ों के कर्तब पर वही व्यक्ति विश्वास करेगा, जो मंदबुद्धि और अंध विश्वास रखने वाला हो। दरअसल इन कर्तब बाज़ों पर विश्वास करना भी शिर्क है। क्योंकि एक हदीसे क़ुद्सी में हैः "إن الله يقول: من قال مطرنا بفضل الله ورحمته, فذلك مؤمن بي كافر بالكوكب, ومن قال: مطرنا بنوء كذا وكذا, فذلك كافر بي مؤمن بالكوكب" (अर्थात: निःसंदेह अल्लाह कहता है कि जो व्यक्ति यह कहता है कि अल्लाह की कृपा से हमपर वर्षा हुई, वह मुझपर विश्वास रखता है और नक्षत्रों को नकारने वाला है और जो ये कहता है कि हमपर किसी नक्षत्र के कारण बारिश हुई, वह अल्लाह को नकार कर नक्षत्र पर विश्वास करने वाला है।) इमाम बुख़ारी और मुस्लिम ने इस हदीस को रिवायत किया है। जाहिलीयत के युग में लोगों का ऐसा मानना था कि नक्षत्र आदि वर्षा में प्रभावशाली भुमिका निभाते हैं।
उत्तर/ तब आप कह दीजिए: नहीं, राशि एवं नक्षत्र आदि मनुष्य के जीवन में किसी भी रूप से प्रभावशाली नहीं हैं। ऐसा विश्वास रखना नाजायज़ है। इनके माध्यम से किसी भी प्रकार की भविष्यवाणी करना भी असम्भव है। क्योंकि गैब का ज्ञान एक मात्र अल्लाह के पास है। क़ुर्आन पाक में अल्लाह कहता है:"قُلْ لَا يَعْلَمُ مَنْ فِي السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ الْغَيْبَ إِلَّا اللَّهُ" {अर्थातः ऐ नबी (ﷺ), आप कह दीजिए कि आसमानों और ज़मीन पर ग़ैब का ज्ञान अल्लाह के सिवा और किसी के पास नहीं है।} (सूरा नम्ल: 65) और चूंकि अल्लाह ही एक मात्र भलाई प्रदान करने वाला और विपत्ति को टालने वाला है और जिसने ये विश्वास रखा कि इन राशियों और नक्षत्रों में भलाई लाने और बुराई को टालने की शक्ति है, दरअसल उसने इन्हें, अल्लाह के अधिकरों तथा उसके पालनहार होने की विशेषता में उसका साझी बना लिया और इसमें संदेह नहीं कि ऐसा मानना शिर्क है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिए: हां, सभी मुसलमानों के लिए अनिवार्य है कि वे अल्लाह के भेजे हुए आदेश के अनूसार निर्णय करें। कुर्आन शरीफ़ में अल्लाह का फ़रमान है:"وَأَنِ احْكُمْ بَيْنَهُمْ بِمَا أَنْزَلَ اللَّهُ وَلَا تَتَّبِعْ أَهْوَاءَهُمْ وَاحْذَرْهُمْ أَنْ يَفْتِنُوكَ عَنْ بَعْضِ مَا أَنْزَلَ اللَّهُ إِلَيْكَ فَإِنْ تَوَلَّوْا فَاعْلَمْ أَنَّمَا يُرِيدُ اللَّهُ أَنْ يُصِيبَهُمْ بِبَعْضِ ذُنُوبِهِمْ وَإِنَّ كَثِيرًا مِنَ النَّاسِ لَفَاسِقُونَ" {अर्थात: और उनके बीच उसके अनुसार निर्णय करो, जो अल्लाह ने उतारा है और उनकी इच्छाओं का अनुसरण न करो और उन लोगों से बचो कि कहीं वह तुम्हें तुम्हारी ओर अल्लाह के उतारे हुए किसी आदेश से हटा न दें। अतः यदि वे फिर जायें, तो जान लो कि अल्लाह उन्हें उनके कुछ पापों का दण्ड़ देना चाहता है। और सत्य यह है कि अधिकतर लोग अवज्ञाकारी हैं।} (सूरा माईदह: 49) और अल्लाह ने उन लोगों की निंदा करते हुए कहा है जो अल्लाह के विधान को छोड़कर मनुष्य जाति द्वारा बनाये गये विधान पर चलते हैं: "أَفَحُكْمَ الْجَاهِلِيَّةِ يَبْغُونَ وَمَنْ أَحْسَنُ مِنَ اللَّهِ حُكْمًا لِقَوْمٍ يُوقِنُونَ" {अर्थात: क्या यह लोग अज्ञानता का निर्णय चाहते हैं। और अल्लाह से बढ़कर किसका निर्णय हो सकता है, उन लोगों के लिए जो विश्वास करना चाहें?} (सूरा माइदा: 5)
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः शफाअत 'बीच में आने' अथवा 'लाभ एवं भलाई प्राप्त करने या विपत्ति तथा हानि से बचने के लिए दूसरे को बीच में लाने' के अर्थ में प्रयोग होता है।
यदि आपसे कहा जाय: शफ़ाअत कितने प्रकार की होती है ?
उत्तर: तो आप कह दीजिए कि शफ़ाअत के तीन प्रकार होते हैं:
1. प्रमाणित शफ़ाअतः अर्थात वो शफ़ाअत जो अल्लाह के अतिरिक्त किसी और से तलब न की जाय। अल्लाह तआला का फ़रमान हैः"قُلْ لِلَّهِ الشَّفَاعَةُ جَمِيعًا" {अर्थात: हर प्रकार की शफ़ाअत केवल अल्लाह के लिए है।} (सूरा अज़्-ज़ुमरः 44) ये नरक की अग्नि से बचाव और जन्नत की नेमत प्राप्त करने की शफ़ाअत है। इसकी दो शर्तें हैं:
क. शफ़ाअत करने वाले को अल्लाह की ओर से शफ़ाअत की अनुमति मिली हो। जैसा कि अल्लाह तआला ने कहा हैः"مَنْ ذَا الَّذِي يَشْفَعُ عِنْدَهُ إِلَّا بِإِذْنِهِ" {अर्थात: कौन है, जो उसके पास उसके आदेश के बिना शफ़ाअत कर सके?} (सूरा अल्-बक़राः 255)
ख. जिसके लिए शफ़ाअत की जाय, उससे अल्लाह प्रसन्न हो। अल्लाह तआला ने कहाः"وَلَا يَشْفَعُونَ إِلَّا لِمَنِ ارْتَضَى" {अर्थात: और वे केवल उन्हीं के लिए शफ़ाअत करेंगे, जिनसे अल्लाह प्रसन्न हो।} (सूरा अल्-अम्बियाः 28) अल्लाह तआला ने इसे अपने इस कथन के साथ इकट्ठा किया हैः"وَكَمْ مِنْ مَلَكٍ فِي السَّمَاوَاتِ لَا تُغْنِي شَفَاعَتُهُمْ شَيْئًا إِلَّا مِنْ بَعْدِ أَنْ يَأْذَنَ اللَّهُ لِمَنْ يَشَاءُ وَيَرْضَى" {अर्थात: आकाश में कितने ही ऐसे फ़रिश्ते हैं, जिनकी शफ़ाअत कुछ काम न देगी, परन्तु अल्लाह जिनके लिए चाहे और जिनसे प्रसन्न हो उनके हित में उसके आदेश के बाद ही।} (सूरा अन्-नज्मः 26) इसलिए जो शफ़ाअत का हक़दार बनना चाहता हो, अल्लाह से उसकी दुआ करे। क्योंकि वही शफ़ाअत का मालिक और उसकी अनुमति प्रदान करने वाला है। किसी और से न माँगे। क्योंकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः"إذا سألت فاسأل الله" (अर्थात: जब तुम माँगो, अल्लाह ही से माँगो।) इसे इमाम तिर्मिज़ी ने रिवायत किया है। चुनांचे मनुष्य को ये कहना चाहिएः ऐ अल्लाह, मुझे उन लोगों में शामिल फ़रमा, जिनके लिए तेरे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम प्रलय के दिन शफ़ाअत करेंगे।
2. अप्रमाणिक शफ़ाअतः अर्थात वो शफ़ाअत जो अल्लाह के अतिरिक्त अन्य से की जाय, जबकि उनके अन्दर उसका सामर्थ्य न हो। यही शिर्क मिश्रित शफ़ाअत है।
3. लोगों के बीच सांसारिक शफ़ाअत। इससे तात्पर्य इन्सानों के बीच उन सांसारिक मामलों में सिफ़ारिश है, जिनका वो सामर्थ्य रखते हैं और सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्हें उसकी आवाश्यकता पड़ती है। ये सिफ़ारिश भलाई के कार्यों में हो तो पसन्दीदा होती है और बुराई के कार्यों में हो तो हराम (वर्जित) होती है। जैसा कि अल्लाह तआला ने कहा हैः"مَنْ يَشْفَعْ شَفَاعَةً حَسَنَةً يَكُنْ لَهُ نَصِيبٌ مِنْهَا وَمَنْ يَشْفَعْ شَفَاعَةً سَيِّئَةً يَكُنْ لَهُ كِفْلٌ مِنْهَا" {अर्थात: जो अच्छे काम की सिफ़ारिश करेगा, उसे उसका भाग मिलेगा और जो बुरे काम की सिफ़ारिश करेगा, उसे उसका भाग मिलेगा।} (सूरा अन्-निसाः 85)
उत्तर/ तो आप कहिएः शफ़ाअत का मालिक अल्लाह तआला है। अल्लाह तआला ने कहाः"قُلْ لِلَّهِ الشَّفَاعَةُ جَمِيعًا" {अर्थात: (हे नबी) आप कह दीजिए, हर प्रकार की शफ़ाअत केवल अल्लाह के लिए है।} (सूरा अज़्-ज़ुमरः 44) इसलिए हम उसका मुतालबा अल्लाह से करेंगे, जो उसका मालिक और उसका आदेश देने वाला है। यही अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के इस कथन का तात्पर्य हैः"إذا سألت فاسأل الله" (अर्थात: जब माँगो तो केवल अललाह से माँगो।) इसे तिर्मिज़ी ने रिवायत किया है। अतः हम कहेंगेः ऐ अल्लाह हमें उन लोगों में शामिल कर, जिनके लिए तेरे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम प्रलय के दिन सिफ़ारिश करेंगे।
उत्तर/ तो आप कहिएः ये बड़ा शिर्क है। क्योंकि अल्लाह तआला ने उन लोगों की निंदा की है, जो अपने और अल्लाह के बीच किसी को सिफ़ारिशी बनाते हैं। अल्ला तआला ने उन लोगों के सम्बन्ध में फरमायाः"وَيَعْبُدُونَ مِنْ دُونِ اللَّهِ مَا لَا يَضُرُّهُمْ وَلَا يَنْفَعُهُمْ وَيَقُولُونَ هَؤُلَاءِ شُفَعَاؤُنَا عِنْدَ اللَّهِ قُلْ أَتُنَبِّئُونَ اللَّهَ بِمَا لَا يَعْلَمُ فِي السَّمَاوَاتِ وَلَا فِي الْأَرْضِ سُبْحَانَهُ وَتَعَالَى عَمَّا يُشْرِكُونَ" {अर्थात: वे अल्लाह के अतिरिक्त उनकी वंदना करते हैं, जो न उन्हें लाभ पहुँचा सकते हैं और न हानि पहुँचा सकते हैं। और कहते हैं कि ये अल्लाह के निकट हमारे सिफ़ारिशी हैं। (हे नबी) आप कह दीजिएः क्या तुम अल्लाह को ऐसी बातें बताते हो, जिसे वह आकाशों और धरती में नहीं जानता। वह इनके शिर्क से पवित्र और सर्वश्रेष्ठ है।} (सूरह यूनुसः 18) यहाँ अल्लाह ने उन्हें 'शिर्क' की विशेषता से चिन्हित करते हुए कहा हैः"عَمَّا يُشْرِكُونَ" अर्थात: 'उनके शिर्क से।' फिर उनपर कुफ़्र का हुक्म लगाते हुए कहाः"إِنَّ اللَّهَ لَا يَهْدِي مَنْ هُوَ كَاذِبٌ كَفَّارٌ" {अर्थातः अल्लाह झूठे और अत्यधिक कुफ़्र करने वाले को मार्गदर्शन नहीं देता।} (अज़्-ज़ुमरः 3) और अल्लाह तआला ने उनके बारे में ये भी फ़रमाया कि वे अपने सिफ़ारिशियों के सम्बन्द में कहेंगेः "وَالَّذِينَ اتَّخَذُوا مِنْ دُونِهِ أَوْلِيَاءَ مَا نَعْبُدُهُمْ إِلَّا لِيُقَرِّبُونَا إِلَى اللَّهِ زُلْفَى" {अर्थात: जिन्होंने अल्लाह के अतिरिक्त अन्य संरक्षक बना लिये हैं, वे कहते हैं, हम इनकी वंदना केवल इसलिए करते हैं कि ये हमें अल्लाह से समीप कर दें।} (सूरा अज़्-ज़ुमरः 3)
उत्तर/ तो आप कहिएः आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से क्षमा याचना आपकी मृत्यु के बाद वैध नहीं है, बल्कि ये आपके जीवन काल तक ही सीमित है। सहाबा किराम और उत्तम युगों के लोगों से सहीह सनद से ये साबित नहीं है कि वे आप सल्लल्लाहु अलैहि की मृत्यु के बाद आपसे क्षमा याचना का मुतालबा करते थे। तथा आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा की एक हदीस में है कि जब उन्होंने आपसे अनुरोध किया कि उनकी मृत्यु के बाद आप उनके लिए दुआ तथा क्षमा याचना करते रहेें, तो आपने फरमायाः"ذاك لو كان وأنا حي فأستغفر لك وأدعو لك" (अर्थात: अगर मेरे जीते जी ऐसा हुआ, तो मैं तुम्हारे लिए क्षमा याचना तथा दुआ करूँगा।) इस हदीस को बुख़ारी ने रिवायत किया है। यह हदीस उक्त आयत की व्याख्या करती और यह बताती है कि आपसे क्षमा याचना का अनुरोध करना आपके जीवन काल के साथ ख़ास है और आपकी मृत्यु के बाद वैध नहीं है। आपसे क्षमा याचना का अनुरोध करने की उदाहरण यदि मिलती भी है, तो उत्तम युगों के बीत जाने के बाद, बाद के लोगों के यहाँ, जब दीन के नाम पर नयी-नयी चीज़ें रिवाज पा चुकी थीं और अज्ञानता का बोल-बाला हो चुका था। उस समय कुछ लोगों ने सहाबा किराम तथा सच्चाई के साथ उनका अनुसरण करने वाले सलफ़ सालेह़ीन एवं सुपथ गामी इमामों के रास्ते से मुँह फेरते हुए इस काम को अपनालिया लिया था।
उत्तर/ तो आप कहिए: इसका अर्थ है, अल्लाह के आज्ञापालन और उसके रसूल के अनुसरण के माध्यम से अल्लाह की निकटता प्राप्त करना। अल्लाह की निकटता प्राप्त करने का यही वो वसीला है, जिसका अल्लाह ने हमें आदेश दिया है। क्योंकि वसीला का अर्थ है, वह वस्तु या माध्यम जिसकी मदद से अपने दरकार तक पहुंचा जा सके। और दरकार तक वही वस्तु पहुँचा सकती है, जिसकी अनुमति अल्लाह या उसके रसूल ने दी हो। जैसे तोहीद और आज्ञापालन। वसीला से अभिप्राय अवलिया और क़ब्रों में मौजूद लोगों की ओर रुख़ करना नहीं है। ये तो वास्तविकता से परे और हक़ीक़त से कोसों दूर की बात है। सच्चाई ये है कि ये केवल शैतान का धोखा है, ताकि लोगों को जन्नत तक ले जाने वाले हिदायत के रास्ते से भटका सके।
उत्तर/ तो आप कहिए: तवस्सुल काउदाहरणतः निकटता प्राप्त करना है। और शरीअत के दृष्टिकोण से तवस्सुल का मूल अर्थ है, अल्लाह की उपासना करके, उसके रसूल का आज्ञापालन करके और अल्लाह की पसंद नापसंद के अनुसार जीवन व्यतीत करके अल्लाह की निकटता प्राप्त करना।
उत्तर/ तो आप कहिए: वसीला दो प्रकार का होता है: 1. जायज़ वसीला, 2. हराम वसीला ।
उत्तर/ तो आप कहिए: (क) अल्लाह की निकटता प्राप्त करने के लिए उसके नामों को माध्यम बनाना। अल्लाह कहता है: "ولله الأسماء الحسنى فأدعوه بها" (अर्थात: और अल्लाह के अच्छे-अच्छे नाम हैं, उन्हीं नामों के माध्यम से उसे पुकारो।) और उसके गुणों को प्रकट करने वाली विशेषताओं के माध्यम से निकटता प्राप्त करना। उदाहरणतः अल्लाह के नबी ﷺ की दुआओं में एक दुआ इस प्रकार हैः "يا حي يا قيوم برحمتك استغيث" (अर्थात: हे सदैव जीवित रहने वाले और सदैव स्थिर एवं स्थायी रब, मैं तेरी कृपा को माध्यम बनाकर तुझसे मदद मांग रहा हूं।) तो यहां अल्लाह के विशेषण 'कृपा' को माध्यम बनाकर उसे पुकारा गया है।
(ख) अल्लाह के निकट पहुँचने के लिए निर्मल अल्लाह के लिए तथा रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की शरीअत के अनुसार किये गये सत्कर्म को माध्यम बनाना। उदाहरणतः कोई कहेः हे अल्लाह, चूँकि मैंने ख़ालिस तेरी वंदना की है और तेरे रसूल का अनुसरण किया है, इसलिए मुझे स्वस्थ कर दे और जीविका प्रदान आकर। उदाहरणतः पवित्र अल्लाह तथा उस के रसूल पर ईमान l अल्लाह तआला ने फरमायाः "رَبَّنَا إِنَّنَا سَمِعْنَا مُنَادِيًا يُنَادِي لِلْإِيمَانِ أَنْ آَمِنُوا بِرَبِّكُمْ فَآَمَنَّا رَبَّنَا فَاغْفِرْ لَنَا ذُنُوبَنَا وَكَفِّرْ عَنَّا سَيِّئَاتِنَا وَتَوَفَّنَا مَعَ الْأَبْرَارِ" {अर्थात: हे हमारे पालनहार, हमने एक पुकारने वाले को सुना जो ईमान की ओर बुलाता था और कहता था कि अपने रब को मानो। हमने उसका आमंत्रण स्वीकार कर लिया। अतः, हे हमारे पालनहार, जो अपराध हमसे हुए हैं, उनको क्षमा कर दे, जो बुराइयाँ हममें हैं उन्हें दूर कर दे और हमारा अन्त नेक लोगों के साथ कर।} (सूरा आले इमरानः 193) इस तवस्सुल के बाद उन्होंने अल्लाह से दुआ की और कहाः "رَبَّنَا وَآَتِنَا مَا وَعَدْتَنَا عَلَى رُسُلِكَ وَلَا تُخْزِنَا يَوْمَ الْقِيَامَةِ إِنَّكَ لَا تُخْلِفُ الْمِيعَادَ" {अर्थात: हे हमारे पालनहार, जो वादे तूने अपने रसूलों के माध्यम से किये हैं, उनको हमारे साथ पूरा कर और प्रलय के दिन हमें हीनता में न डाल, निःसंदेह! तू अपने वादे के ख़िलाफ़ करने वाला नहीं है।} (सूरा आले-इमरानः 194) इसी तरह भारी चट्टान के अन्दर फंसे हुए तीन लोगों ने उस विपत्ति से निजात पाने के लिए अपने सत्कर्मों को माध्यम बनाकर अल्लाह से दुआ की थी। पूरी घटना सह़ीह़ बुख़ारी एवं सह़ीह़ मुस्लिम की ह़दीस में अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है। उसमें है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने तीन लोगों की एक घटना सुनायी, जिनका रास्ता एक भारी चट्टान ने बन्द कर दिया था, तो उन्होंने अपने सत्कर्मों का हवाला देकर अल्लाह से दुआ की थी कि उन्हें इस विपत्ति से निजात दे दे और अन्ततः चट्टान हट गयी थी।
(ग) अल्लाह के किसी नेक बन्दे की दुआ के माध्य से अल्लाह के निकट पहुँचना, जो उपस्थित तथा सक्षम हो। उदाहरणतः कोई किसी नेक इन्सान से दुआ का अनुरोध करे। जैसे सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्षा के लिए दुआ करने का अनुरोध किया तथा उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने उवैस क़रनी से दुआ का अनुरोध किया एवं जैसा कि याक़ूब अलैहिस्सलाम के बेटों ने उनसे दुआ की निवेदन की। अल्लाह तआला ने फरमायाः"قَالُوا يَا أَبَانَا اسْتَغْفِرْ لَنَا ذُنُوبَنَا إِنَّا كُنَّا خَاطِئِينَ" {अर्थात: उन्होंने कहाः हे हमारे पिता, हमारे गुनाहों की क्षमा याचना कीजिए, निःसंदेह! हम पापी थे।} (सूरा यूसुफ़ः 97)
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः ये वो वसीला है, जिसे शरीअत ने अवैध क़रार दिया है। जैसे कोई ब्यक्ति मरे हुए लोगों को वसीला बनाये और उनसे सहायता तथा शिफ़ारिश तलब करे। ये तवस्सुल शिर्किया है, इसपर सारे इमाम एकमत हैं, यद्यपि वसीला नबियों और वलियों ही को क्यों न बनाया जाय। अल्लाह तआला ने फरमायाः "وَالَّذِينَ اتَّخَذُوا مِنْ دُونِهِ أَوْلِيَاءَ مَا نَعْبُدُهُمْ إِلَّا لِيُقَرِّبُونَا إِلَى اللَّهِ زُلْفَى" {अर्थात: रहे वे लोग जिन्होंने उसके सिवा दूसरे संरक्षक बना रखे हैं (और अपने इस कर्म का कारण यह बताते हैं कि) हम तो उनकी इबादत सिर्फ इसलिए करते हैं कि वे अल्लाह तक हमारी पहुँच करा दें।} (सूरा अज़्-ज़ुमरः 3) फिर उनपर हुक्म लगाते हुए उनकी विशेषता बयान की और फरमायाः"إِنَّ اللَّهَ يَحْكُمُ بَيْنَهُمْ فِي مَا هُمْ فِيهِ يَخْتَلِفُونَ إِنَّ اللَّهَ لَا يَهْدِي مَنْ هُوَ كَاذِبٌ كَفَّارٌ" {अर्थात: अल्लाह निःसंदेह उनके बीच उन तमाम बातों का निर्णय कर देगा, जिनमें वे मतभेद कर रहे हैं। अल्लाह किसी ऐसे व्यक्ति को मार्ग नहीं दिखाता, जो झूठा और सत्य का इन्कार करने वाला हो।} (सूरा अज़्-ज़ुमरः 3) इय आयत में अल्लाह ने उनपर काफिर होने और इस्लाम की सीमा से बहार निकल जाने का हुक्म लगा दिया है। इसी प्रकार अवैध तवस्सुल में वो तवस्सुल भी शामिल है, जिसके विषय में शरीअत ख़ामोश हो। क्योंकि तवस्सुल एक वंदना है और वंदना के वैध होने के लिए क़ुर्आन तथा सुन्नत से सिद्ध होना अनिवार्य है। उदाहरणतः किसी की जाह (मर्तबा) अथवा व्यक्तित्व आदि को वसीला बनाना। उदाहरणतः कोई कहेः हे अल्लाह, मुझे अपने प्यारे नबी की जाह के वसीले में क्षमा करे दे, या हे अल्लाह, तुझसे तेरे नबी, नेक बन्दों अथवा अमुक व्यक्ति की क़ब्र के वसीले से माँगता हूँ। दरअसल इस तरह के तवस्सुल को न अल्लाह ने वैध क़रार दिया है, न उसके रसूल ने। अतः ये बिदअत है और इससे बचना ज़रूरी है। ये तमाम तरह के वसीले सहाबा, ताबिईन तथा सुपथ पर चलने वाले इमामों की अवधि में अस्तित्व में नहीं थे। उन तमाम लोगों से अल्लाह प्रसन्न हो।
उत्तर/ तो आप कहिएः दर्शनार्थ (ज़ियारत) दो प्रकार के होते हैं 1: जायज़ ज़ियारत, जिसपर ज़ियारत करने वाले को दो कारणों से नेकी मिलेगी। वह दो कारण इस प्रकार हैं-
(क) प्रलोक (आख़िरत) को याद करना। क्योंकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः"كنت نهيتكم عن زيارة القبور ألا فزوروها فإنها تذكر الآخرة" (अर्थात: देखो, मैंने तुम्हें क़ब्रों की ज़ियारत (दर्शनार्थ) से मना किया था, परंतु अब उनकी ज़ियारत कर सकते हो। क्योंकि ये प्रलोक को याद दिलाती है।) इस हदीस को मुस्लिम ने रिवायत किया है।
(ख) मुर्दों को सलाम करना और उनके लिए दुआ करना। अतः हम कहेंगेः "السلام عليكم أهل الديار من المؤمنين" (पूर्ण दुआ) अर्थात: हे इस भूखंड में रहने वाले मोमिनो और मुसलमानो, आपपर शान्ति हो।) इस प्रकार, ज़ियारत करने वाले और ज़ियारत किये गये लोग, दोनो लाभान्वित होंगे।
2- अवैध दर्शनार्थ ( ज़ियारत ), जिसका करने वाला पापी है। ये वो ज़ियारत है, जिसका उद्देश्य क़ब्रों के पास दुआ करना अथवा उनके माध्यम से अल्लाह का ध्यान करना होता है। ये बिदअत है, जो ऐसा करने वाले को शिर्क तक ले जाती है। कभी-कभी ज़ियारत का उद्देश्य मरे हुए लोगों से फ़रियाद करना, उनसे सिफ़ारिश तलब करना अथवा सहायता माँगना होता है। यदि ऐसा है तो ये महा शिर्क है। क्योंकि अल्लाह तआला का कथन हैः"ذَلِكُمُ اللَّهُ رَبُّكُمْ لَهُ الْمُلْكُ وَالَّذِينَ تَدْعُونَ مِنْ دُونِهِ مَا يَمْلِكُونَ مِنْ قِطْمِيرٍ ، إِنْ تَدْعُوهُمْ لَا يَسْمَعُوا دُعَاءَكُمْ وَلَوْ سَمِعُوا مَا اسْتَجَابُوا لَكُمْ وَيَوْمَ الْقِيَامَةِ يَكْفُرُونَ بِشِرْكِكُمْ وَلَا يُنَبِّئُكَ مِثْلُ خَبِيرٍ" {अर्थात: इन विशेषताओं का मालिक अल्लाह तुम्हारा रब है, और जिन्हें तुम अल्लाह के अतिरिक्त पुकारते हो खजूर की गुठली के छिल्के के भी मालिक नहीं हैं। यदि तुम उन्हें पुकारो, तो वे तुम्हारी पुकार सुन नहीं सकते, और यदि सुन भी लें तो तुम्हारा जवाब नहीं दे सकते। तथा प्रलय के दिन वे तुम्हारे शिर्क का इन्कार कर देंगे। वस्तु-स्थिति की ऐसी सही ख़बर तुम्हें एक ख़बर रखने वाले के सिवा कोई नहीं दे सकता} (सूरा फ़ातिरः 13-14)
उत्तर/ आप कहिए कि: मैं वही कहूँगा जो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने साथियों को सिखाया कि जब क़ब्रिस्तान की ज़ियारत करें, तो कहें,
(السلام عليكم دار قوم مؤمنين وأتاكم ما توعدون غداً مؤجلون وإنا إن شاء الله بكم لاحقون) (अर्थात: हे मोमिन समुदाय की बस्ती के लोगो, तुमपर शान्ति हो, तुमसे जिस मौत का वादा किया गया था, वो आ चुकी है। हमें कल के लिए रखा गया है और अल्लाह ने चाहा तो हम भी तुमसे मिलने वाले हैं।) इस हदीस को मुस्लिम ने रिवायत किया है। फिर मैं उनके लिए कृपा, क्षमा और पदोन्नति आदि की दुआ करूँगा।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः नेक लोगों की क़ब्रों के पास दुआ करना बाद में वजूद में आने वाला एक कार्य, बिद्अत और शिर्क तक ले जाने वाली वस्तु है। अली बिन हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि उन्होंने अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की क़ब्र के पास एक व्यक्ति को दुआ करते हुए देखा, तो उसे मना किया और कहाः अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया हैः (तुम मेरी क़ब्र को उत्सव स्थल न बनाओ।) इस हदीस को ज़िया मक़दिसी ने (अल्-मुख़ताराः 428) में रिवायत किया है। जबकि सबसे महान क़ब्र अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की क़ब्र है, जिसमें सबसे पवित्र तथा श्रेष्ठ शरीर एवं ब्रह्माण्ड का सबसे सम्मानित इन्सान सोया हुआ है। इसके बावजूद सहीह सनद से कहीं इस बात का वर्णन नहीं आया है कि किसी सहाबी ने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की क़ब्र के पास आकर दुआ की हो। यही हाल उनके अनुसरणकारियों का भी था। वे सहाबा और उम्मत के महत्वपूर्ण लोगों की क़ब्रों के पास दुआ नहींं करते थे। ये कुछ बाद के लोगों के दिमाग़ में डाला हुआ शैतान का वसवसा है कि उन्होंने उस चीज़ को पसन्द कर लिया जिसे, उनके असलाफ़ (गुजरे हुए सुपथ गामी लोग) ने नापसन्द किया था। क्योंकि वे उसकी बुराई तथा कुपरिणाम से अवगत थे। लेकिन बाद के लोगों ने, जो ज्ञान, बुद्धि और प्रतिष्ठा के मामले में उनसे कमतर थे, असावधानी बरती और शैतान के जाल में फंस गये और बिद्अत को सही समझ कर शिर्क के अन्धेरे गड्ढे में जा गिरे। अल्लाह हमारी रक्षा करे!
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः ग़ुलू (अतिशयोक्ति) का अर्थ है, अल्लाह के आदेश का उल्लंघन करके उसकी निश्चित की हुई सीमा को पार करना। ग़ुलू कभी शरीअत की दृष्टि में जो कार्य वांछित है, उसे बढ़ाने से होता है, तो कभी किसी शरई कार्य को नेकी समझकर छोड़ देने से।
ग़ुलू के विनाशकारी प्रकारों में से एक प्रकार नबियों तथा अल्लाह के नेक बन्दों के बारे में गुलू है। वो इस तौर पर कि उन्हें उनके मर्तबे से बढ़ा दिया जाय, वे जितनी मुहब्बत और सम्मान के हक़दार हैं, उससे अधिक सम्मान दिया जाय, उन्हें रुबूबियते की विशेषताएं प्रदान कर दी जायें, वंदना शुमार होने वाला कोई कार्य उनके लिए किया जाय अथवा उनकी प्रशंसा में इस क़दर अति की जाय कि वे पूज्य के दर्जे तक पहुँच जायें।
गुलू की एक सूरत ये है कि अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के उद्देश्य से उन वस्तुओं को हमेशा कि लिए छोड़ दिया जाय, जिन्हें अल्लाह ने लोगों के लाभ के लिए पैदा किया है। जैसे खाने-पीने की वस्तुएं तथा अन्य आवश्यक वस्तुएं जैसे सोना और निकाह करना आदि।
तथा नापसन्दीदा ग़ुलू की एक सूरत यह है कि तौह़ीद (एकेश्वरवाद) पर क़ायम मुसलमानों को काफ़िर कहा जाय, उनसे बराअत जाहिर की जाय, उनसे सम्बन्ध तोड़े जायें, उनसे जंग की जाय, उनपर अत्याचार किया जाय तथा उनकी इज़्ज़त-आबरू, धन एवं रक्त को वैध समझा जाय।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः क़ुर्आन तथा हदीस में अगणित ऐसे प्रमाण हैं, जो ग़ुलू से मना तथा सावधान करते हैं। जैसा कि अल्लाह तआला ने फरमायाः " وَمَا أَنَا مِنَ الْمُتَكَلِّفِينَ" {अर्थात: और न मैं बनावटी लोगों में से हूँ।} (सूरा सादः 86) तथा अल्लाह तआला ने बनी इसराईल को धर्म में ग़ुलू करने से मना करते हुए कहाः"لَا تَغْلُوا فِي دِينِكُمْ" {अर्थात: अपने धर्म में ग़ुलू मत करो।} (सूरा अन्-निसाः 171) और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः"إياكم والغلوّ فإنما أهلك من كان قبلكم الغلو" (अर्थात: तुम ग़ुलू से बचो, क्योंकि तुमसे पहले लोगों को ग़ुलू ने ही विनाश किया था।) इस हदीस को अह़मद ने रिवायत किया है। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अधिक फरमायाः"هلك المتنطعون, هلك المتنطعون, هلك المتنطعون" (अर्थत: बाल की खाल निकालने वाले हलाक हो गये, बाल की खाल निकालने वाले हलाक हो गये, बाल की खाल निकालने वाले हलाक हो गये।) इसे इमाम मुस्लिम ने कथन किया है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः काबा के अतिरिक्त किसी और वस्तु या स्थल का तवाफ़ (परिक्रमा) जायज़ नहीं। क्योंकि अल्लाह ने इस कार्य को अपने घर के साथ खास कर रखा है। उसका फरमान हैः"وَلْيَطَّوَّفُوا بِالْبَيْتِ الْعَتِيقِ" {अर्थात: और उन्हें चाहिए कि अल्लाह के पुराने घर का तवाफ़ करें।} (सूरा अल्-ह़ज्जः 29) हमारे रब ने हमें इसके अलावा किसी अन्य वस्तु के तवाफ़ की अनुमति नहीं दी है। क्योंकि तवाफ़ एक वंदना है और हमें कोई भी नयी वंदना जारी करने से सावधान किया गया है। इसलिए क़ुर्आन तथा सुन्न के सही प्रमाण के बिना कोई उपासना -वंदना वैध नहीं है। दरअसल, शरई प्रमाण के बिना कोई वंदना आरंभ करना अल्लाह तथा उसके रसूल के बराबर खड़ा होना है तथा वंदना को अल्लाह के सिवा किसी अन्य के लिए करना शिर्क है, जिससे सारी नेकियाँ नष्ट हो जाती हैं और आदमी एकेश्वरवादी धर्म की सीमा से निकल कर कुफ़्र में प्रवेश हो जाता है। अल्लाह की पनाह!
उत्तर: ऐसे में कहा जाएगा कि श्रद्धा की नियत से उक्त तीन पवित्र मस्जिदों के अतिरिक्त किसी अन्य स्थान की यात्रा करना वर्जित (नाजायज़) है। इस लिए कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है"لا تُشَدُّ الرِّحَالُ إِلا إِلَى ثَلاثَةِ مَسَاجِدَ: لْمَسْجِدِ الْحَرَامِ, وَمَسْجِدِي هَذَا, وَالْمَسْجِدِ الأَقْصَى" (अर्थात: मस्जिदे हराम (काबा),मेरी इस मस्जिद (मस्जिदे नबवी मदीना) तथा मस्जिदे अक्सा (फिलस्तीन) को छोड़ किसी अन्य स्थल की श्रद्धा के लिए यात्रा न की जाएl)
प्रश्न/ जब आपसे कहा जायः क्या ये ह़दीसें सहीह हैं या इन्हें अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की ओर मन्सूब करके गढ़ लिया गया हैः "إذا ضاقت بكم الأمور فعليكم بزيارة القبور)" (अर्थात: जब समस्याओं से तंग आ जाओ, तो क़ब्रों की ज़ियारत करो।) , "من حجَّ فلم يَزُرْني فقد جفاني" अर्थात: (जिसने हज किया और मेरी ज़ियारत नहीं की, उसने मुझपर अत्याचार किया।), "من زارني وزار أبي إبراهيم في عام واحد ضمنت له على الله الجنة" (अर्थात: जिसने मेरी और मेरे पिता इब्राहीम की एक ही वर्ष में ज़ियारत की, मैं उसे जन्नत की गारन्टी देता हूँ।), "من زارني بعد مماتي فكأنما زارني في حياتي" (अर्थात: जिसने मेरी मृत्यु के बाद मेरी ज़ियारत की, मानो उसने मेरे जीवन काल में मेरी ज़ियारत की।), "من اعتقد في شيء نفعه" (अर्थात: (जो किसी वस्तु पर आस्था रखे, उसे उससे लाभ होगा।), "توسلوا بجاهي فإن جاهي عند الله عظيم" (अर्थात: मेरे व्यक्तित्व का वसीला पकड़ो, क्योंकि मेरा व्यक्तित्व अल्लाह के निकट महान है।) और "عبدي أطعني فأجعلك ممن يقول للشيء كن فيكون" (अर्थात: ऐ मेरे बन्दो, मेरा आज्ञापालन करो, मैं तुम्हें उन लोगों में शामिल कर दूँगा, जो किसी वस्तु से "हो जा" कह दें तो वह अस्तित्व में आ जाये।) "إن الله خلق الخلق من نور نبيه محمد -صلى الله عليه وسلم-" (अर्थात:अल्लाह ने श्रृष्टि की रचना अपने नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के प्रकाश से कीl)
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः ये सारी हदीसें झूठी हैं। इन्हें फैलाने का काम बिद्अती और क़ब्रों की पूजा करने वाले करते हैं। ऐसी हस्ती जो किसी चीज़ से कहे कि हो जा, तो हो जाये, केवल अल्लाह है। उसका कोई साझी नहीं। उसका कोई हमसर नहीं और न उसके जैसा कोई है। वह पवित्र है और सारी प्रशंसाएं उसी की हैं। उसके अलावा कोई इसकी क्षमता नहीं रखता, चाहे वो नबी अथवा वली ही क्यों न हो। अल्लाह तआला ने फरमायाः"إِنَّمَا أَمْرُهُ إِذَا أَرَادَ شَيْئًا أَنْ يَقُولَ لَهُ كُنْ فَيَكُونُ" {अर्थात: उसका मामला तो ये है कि जब वो किसी काम का इरादा करता है, तो उससे कहता है कि हो जा और वो हो जाता है।} (सूरा यासीनः82) तथा फरमायाः " أَلَا لَهُ الْخَلْقُ وَالْأَمْرُ تَبَارَكَ اللَّهُ رَبُّ الْعَالَمِينَ" अर्थात: {सुन लो, पैदा वही करता है और आदेश भी उसी का चलता है। बरकत वाला है अल्लाह, जो समस्त संसारों का रब है।} (सूरा अल्-आराफ़ः 54) इस आयत में जिस शब्द को बाद में आना चाहिए था, उसे पहले लाकर ये संदेश दिया गया है कि पैदा करने तथा संसार को संचालन करने का काम केवल अल्लाह का है, जो अकेला है और उसका कोई साझी नहीं।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः ये अति दर्जे के हराम कार्यों, विनाशकारी बिदअतों और शिर्क तक लेजाने वाले महत्वपूर्ण साधनों में से एक है। आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपनी अन्तिम बीमारी में फरमाया, जिससे उठ नहीं सकेः"لعن الله اليهود والنصارى اتخذوا قبور أنبيائهم مساجد" अर्थात: (अल्लाह की लानत हो यहूदियों तथा ईसाइयों पर, उन्होंने अपने नबियों की क़ब्रों को मस्जिद बना लिया।) आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा कहती हैं, (आप उनके इस कृत्य से लोगों को सावधान करना चाहते थे।) इस हदीस को बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है। तथा जुन्दुब बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु रिवायत करते हैं कि आपने मृत्यु से पाँच दिन पहले फरमायाः "ألا وإن من كان قبلكم كانوا يتخذون قبور أنبيائهم وصالحيهم مساجد ألا فلا تتخذوا القبور مساجد, فإني أنهاكم عن ذلك" अर्थात: (सुन लो, तुमसे पहले वाले लोग अपने नबियों और नेक लोगों की क़ब्रों को मस्जिद बना लेते थे। सुन लो, तुम क़ब्रों को मस्जिद न बनाना। मैं तुम्हें इससे मना करता हूँ।) इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है। क़ब्रों पर बनी हुई मस्जिदों में नमाज़ जायज़ नहीं है। जब किसी क़ब्र अथवा क़ब्रों के ऊपर मस्जिद बन जाय, तो मस्जिद को गिराना ज़रूरी है। इसी तरह यदि ऐसी जगह पर मस्जिद बन जाये जिसमें क़ब्र न हो, फिर उसमें किसी मुर्दे को दफ़न कर दिया जाय तो मस्जिद नहीं गिराई जायेगी, बल्कि क़ब्र को खोल कर मदफून शख़्स को निकालकर मुसलमानों की आम क़ब्रिस्तान में दफन कर दिया जायेगा।
उत्तर/ तो कहा जायेगाः क़ब्रों के ऊपर निर्माण करना एक नापसन्दीदा बिद्अत है। क्योंमि ये क़ब्र में मौजूद व्यक्ति के बारे में ग़ुलू के साथ-साथ शिर्क का माध्यम भी है। इसलिए क़ब्रों पर बने अवैध निर्माण को गिराना और क़ब्रों को धरती के बराबर करना ज़रूरी है, ताकि इस बिद्अत का ख़ात्मा हो सके और शिर्क का चोर दरवाज़ा बन्द हो सके। इमाम मुस्लिम ने अपनी सह़ीह़ में अबुल हय्याज असदी, ह़य्यान बिन हुसैन से रिवायत किया है, वो कहते हैं कि अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने मुझसे कहाः क्या मैं तुम्हें उसी काम के लिए न भेजूँ, जिसके लिए अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मुझे भेजा थाः "ألاَّ تَدَع صورة إلا طمستها ولا قبراً مشرفاً إلا سوّيته" (अर्थात: देखो, तुम्हें जो भी चित्र मिले, उसे मिटा दो और जो भी ऊँची क़ब्र मिले, उसे बराबर कर दो।)
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा के कमरे में दफ़न किये गये थे और आपकी क़ब्र 80 साल से ज़्यादा समय तक मस्जिद के बाहर ही रही। फिर किसी उमवी बादशाह ने मस्जिदे नबवी के विस्तार का कार्य कराया, तो वो कमरा मस्जिद के अन्दर आ गया। उस समय के उलमा ने बादशाह को मना किया और इस कमरे को मस्जिद में दाख़िल करने से सावधान किया, किन्तु वो नहीं माना। खुद अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने क़ब्रों पर मस्जिद बनाने से सावधान करते हुए फरमाया हैः "ألا وإن من كان قبلكم كانوا يتخذون القبور مساجد, ألا فلا تتخذوا القبور مساجد فإني أنهاكم عن ذلك" (अर्थात: सुन लो, तुमसे पहले लोग क़ब्रों को मस्जिद बना लिया करते थे। देखो, तुम क़ब्रों को मस्जिद न बनाना। मैं तुम्हें इससे मना करता हूँ।) इस हदीस को मुस्लिम ने रिवायत किया है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने क़ब्रों पर मस्जिद निर्माण करने वालों और चराग़ाँ करने वालों पर लानत की है। जैसा कि सुनन की एक हदीस में है। परन्तु, अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को अपनी उम्मत के बारे में जिस बात का डर था और जिससे बार-बार सावधान किया था, दुर्भाग्य से वही हुआ और इसके मुख्य कारण थे, इस्लाम की असल शिक्षाओं से अनभिज्ञता और ख़ुराफ़ात तथा बिद्आत की ओर बुलाने वाले उलमा के छल-कपट। वे अल्लाह की निकटता प्राप्त करने के लिए ऐसे कार्य करने लगे, जो दरअसल उससे शत्रुता और उसके रसूल के विरोध के कार्य थे। जैसे मस्जिदों में क़ब्र बनाना, क़ब्रों पर परदे लटकाना, चराग़ाँ करना, उनका तवाफ़ करना और उनके पास दान पेटियाँ रखना। चुनांचे, नेक लोगों से मुहब्बत, उनके सम्मान और दुआ के क़बूल होने के उद्देश्य से उनके माध्यम से अल्लाह की निकटता प्राप्त करने के नाम पर, शिर्क और गुमाराही के काम फैलते चले गये। दरअसल, ये सब कुछ पिछली गुमराह क़ौमों की मीरास है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः"لتّتبعن سنن من كان قبلكم حذوا القذة بالقذة حتى لو دخلوا جحر ضب خرب لدخلتموه" (अर्थात: निःसंदेह तुम पिछली क़ौमों का पूरा-पूरा अनुसरण करोगे। यहाँ तक कि यदि वे गोह के बिल में प्रवेश किये होंगे, तो तुम भी प्रवेश करोगे।) इस हदीस को बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः चारों इमाम, बल्कि पूरी उम्मत इस बात पर एकमत है कि सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम ने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के शरीर को, उससे प्राण निकलने के पश्चात ही दफ़न किया था। ऐसा नहीं हो सकता कि उन्होंने आपको जीवित ही दफन कर दिया हो। फिर, सहाबा ने आपके बाद आपका ख़लीफ़ा नियुक्त कर दिया, आपकी बेटी फ़ातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा ने मीरास (बपौती) से हिस्सा माँग लिया तथा सहाबा,ताबिईन और चारों इमामों में से किसी से ये नक़ल नहीं किया गया है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मौत के बाद कभी क़ब्र से निकले हों। ऐसे में, ये दावा करना कि आप लोगों के लिए अपनी क़ब्र से निकलते हैं, मूर्खता, झूठ, शैतान के धोखा तथा अल्लाह एवं उसके रसूल पर मिथ्यारोप के सिवा कुछ नहीं हो सकता। ऐसा कैसे हो सकता है, जबकि स्वयं अल्लाह तआला ने फरमाया हैः "وَمَا مُحَمَّدٌ إِلَّا رَسُولٌ قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِهِ الرُّسُلُ أَفَإِنْ مَاتَ أَوْ قُتِلَ انْقَلَبْتُمْ عَلَى أَعْقَابِكُمْ" {अर्थात: मुह़म्मद तो बस एक रसूल हैं, उनसे पहले भी बहुत-से रसूल ग़ुज़र चुके हैं। तो क्या, यदि वो मर गये अथवा क़त्ल कर दिए गये, तो तुम उलटे पाँव फिर जाओगे?} तथा फरमायाः "إِنَّكَ مَيِّتٌ وَإِنَّهُمْ مَيِّتُونَ" {अर्थात: निःसंदेह, आप मरने वाले हैं और वे भी मरने वाले हैं।} यहाँ अल्लाह तआला ने आपकी मृत्यु की सूचना को लोगों की मृत्यु की सूचना से जोड़कर बयान किया है, ताकि ये स्पष्ट हो जाय की ये वास्तविक मौत एवं इस संसार से बरज़ख़ी संसार की ओर स्थानांतरण है, जिससे बस एक ही बार उस समय निकलना है, जब हिसाब-किताब और बदले के लिए सारे लोगों को क़ब्रों से निकालकर मैदाने हश्र में एकत्र किया जायेगा। आपके क़ब्र से निकलने का अक़ीदा रखने वाले जाहिलों और मूर्खों के खण्डन के लिए इमाम क़ुरतुबी मालिकी (मृत्यु 656 हिजरी) की पूस्तक 'अल्-मुफ़हम अन ख़ुराफ़ति ख़ुरूजिही -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- मिन क़बरिही' से इस उद्धरण को नक़ल करना उचित मालूम होता हैः (पहली नज़र में ही इस अक़ीदे का ग़लत होना स्पष्ट हो जाता है। इस अक़ीदे को मान लेने से ये आवश्यक हो जाता है कि आपको जो भी देखे, उसी शक्ल-सूरत में देखे, जो मृत्यु के समय आपकी थी, आपको दो देखने वाले एक ही समय में दो जगहों में न देखें, आप अभी जीवित हों और अपनी क़ब्र से निकलें, बाज़ारों में चलें, लोगों से बात करें और लोग भी आपसे बात करें। इस अक़ीदे को मानने से ये भी आवश्यक हो जाता है कि आपकी क़ब्र आपके शरीर से खाली हो जाय और उसमें आपके शरीर का कोई भी अंग मौजूद न रहे, फिर खाली क़ब्र की ज़ियारत की जाय और अनुपस्थित व्यक्ति पर सलाम किया जाय, क्योंकि संभव है कि कभी-कभी आप क़ब्र से बाहर भी हों!! ये सारी नादानी की बातें हैं, जिसके अन्दर थोड़ी सी भी समझ-बूझ होगी, वो इनपर विश्वास नहीं कर सकता।) उनकी बात समाप्त हुई।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः बिद्अत हर वो कार्य है, जिसे बन्दा बिना किसी शरई प्रमाण के अपने रब की वंदना समझकर करे। बिद्अत के दो प्रकार हैंः काफ़िर बना देने वाली बिद्अतः उदाहरणतः कोई मरे हुए व्यक्ति की निकटता प्राप्त करने के लिए उसकी क़ब्र का तवाफ़ करे। तथा ऐसी बिद्अत जो काफ़िर तो न बनाये, परन्तु पाप का हक़दार बना देः जैसे कोई अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम या किसी वली की मीलाद मनाये, इस शर्त पर कि उसमें कोई कुफ़्र अथवा शिर्क की मिलावट न हो। ज्ञात हो कि इस्लाम में 'बिद्अते हसना' नाम की कोई वस्तु नहीं है। क्योंकि हर बिद्अत पथभ्रष्टता है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया हैः "إياكم ومحدثات الأمور فإن كل محدثة بدعة وكل بدعة ضلالة" (अर्थात: तुम धर्म के नाम पर अस्तित्व में आने वाली नयी वस्तुओं से बचो। क्योंकि निःसंदेह धर्म के नाम पर अस्तित्व में आने वाली हर नयी वस्तु बिद्अत है और हर बिद्अत पथभ्रष्टता है।) तथा एक रिवायत में हैः"وكل ضلالة في النار" अर्थात: (और हर गुमराही नरक तक ले जाती है।) इस ह़दीस को इमाम अह़मद और नसई ने रिवायत किया है। यहाँ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने किसी भी बिद्अत को अलग किये बिना, हर बिद्अत को पथभ्रष्टता कहा है। पता चला कि सारी बिद्अतें हराम हैं। ज्ञात हो कि बिद्अती सवाब का हक़दार नहीं है, क्योंकि बिद्अत, धर्म के सम्पूर्ण होने के बाद उससे कुछ और चीज़ों को जोडने के अर्थ में है। यही कारण है की बिद्अत को बिद्अती के मुँह पर मार दिया जायेगा। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः"من عمل عملاً ليس عليه أمرنا فهو رد" (अर्थात: जिसने कोई ऐसा कार्य किया, जिसके बारे में हमारा आदेश न हो, तो उसका वो कार्य उसी के मुँह पर मार दिया जायेगा।) इस हदीस को मुस्लिम ने रिवायत किया है। तथा आपने फरमायाः "من أحدث في أمرنا ما ليس منه فهو رد" (अर्थात: जिसने हमारे इस धर्म में कोई ऐसा नया कार्य किया, जो उसका भाग नहीं है, तो उसका वो कार्य स्वीकार-योग्य नहीं है।) इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः (जिसने कोई नया तरीका निकाला, जो अच्छा हो) अर्थात, जिसने कोई ऐसा कर्म किया जो इस्लाम ने सिखाया है, लेकिन लोगों ने भुला दिया है या यूँ कह सकते हैं कि जिसने किसी ऐसे काम की ओर बुलाया जो क़ुर्आन तथा सुन्नत में मौजूद है, परन्तु लोगों ने उसे छोड़ दिया है, तो उसे उसका अनुसरण करने वालों का सवाब मिलेगा। क्योंकि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यह बात कुछ निर्धन लोगों को दान करने की प्रेरणा देने के लिए कही थी, जो लोगों से माँगने पर मजबूर थे। फिर ये भी ग़ौर करने का स्थान है कि जिस व्यक्ति ने यह कहा कि (जिसने कोई नया तरीका निकाला, जो अच्छा हो), उसीने (हर बिद्अत पथभ्रष्टता है।) भी कहा है। सुन्नत का स्रात क़ुर्आन तथा हदीस है जबकि बिद्अत निराधार एवं कुछ बाद के लोगों की उपज होती है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः उमर रज़ियल्लाहु अन्हु के कथन: (यह क्या ही अच्छी बिद्अत है!) का यहाँ शाब्दिक अर्थ अभिप्राय है, शरई अर्थ नहीं। क्योंकि उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने यह बात केवल तरावीह की नमाज़ के बारे में कही है, जिसे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने सुन्नत क़रार दिया है। चुनांचे उनका यह कार्य अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कार्य के अनुसार ही था। और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कार्य को पुनः जीवित करना, बिद्अत नहीं, बल्कि सुन्नत को दोबारा जारी करना, भूले हुए कार्य को याद दिलाना, रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सिखाये एवं किये हुए कार्य की ओर पुनः बुलाना है। जहाँ तक उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु के कार्य की बात है, तो याद रखना चाहिए कि उनके तथा उनके सिवा अन्य ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन के अनुसरण की बात स्वयं अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायी थी। आपका फ़रमान हैः "عليكم بسنتي وسنة الخلفاء الراشدين" (अर्थात: ख़ुलफ़ा -ए-राशिदीन की सुन्नत को पकड़े रहना।) जबकि ख़ुलफा-ए-राशिदीन के अतिरिक्त अन्य लोगों का हाल ऐसा नहीं है। क्योंकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने सुन्नत को स्वयं अपने और ख़ुलफा-ए-राशिदीन के साथ सीमित कर दिया है और उनके सिवा अन्य लोगों को शामिल नहीं किया है। जबकि सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम बिद्अत एवं धर्म के नाम पर अस्तित्व में आने वाली नयी वस्तुओं से सावधान करने के मामले में सबसे आगे थे। इसका एक उदाहरण यह है कि अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु ने जब देखा कि कुछ लोगों ने इस्लाम में एक नयी वस्तु जारी करते हुए ख़ास अन्दाज़ में सामूहिक ज़िक्र शुरु कर दिया है, जबिक उनकी नीयत भी सही थी, तो फरमायाः (तुम मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आपके साथियों से ज्ञान में बढ़ गये हो या अत्याचार करते हुए बिद्अत ले आये हो?) और जब उन्होंने कहाः (हमारा इरादा तो भलाई का है।) तो फ़रमायाः (ज़रुरी नहीं है कि भलाई का इरादा करने वाला हर व्यक्ति उसे पा ही ले।) इस हदीस को दारिमी ने अपनी सुनन में रिवायत किया है। इब्ने मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु अधिकांश अपनी सभाओं में कहा करते थेः (अनुसरण करो और धर्म के नाम पर कोई नया कार्य न करो।) और इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने फ़रमायाः (हर बिद्अत पथभ्रष्टता है, यद्यपि लोग उसे अच्छा समझें।)
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जन्म दिवस पर उत्सव मनाने का ज़िक्र न तो क़ुरआन में है और न ह़दीस में। इसलिए इसका कोई शरई प्रमाण नहीं है। साथ ही ये न तो किसी सह़ाबी से सिद्ध है और न चार इमामों में से किसी ने इसे जायज़ कहा है। हालाँकि यदि नेकी का काम होता, तो उन्होंने अवश्य किया होता। मीलाद मनाने वालों का दावा है कि वे आपके जन्म दिन का उत्सव आपकी मुहब्बत में मनाते हैं और आपसे मुहब्बत रखना हर मुसलमान पर अनिवार्य है, इसके बिना कोई व्यक्ति सत्यवादी मोमिन नहीं हो सकता। परन्तु ध्यान देने योग्य बात ये है कि आपकी मुहब्बत आपके अनुसरण में निहित है, जन्म दिवस पर उत्सव मनाने में नहीं। इस बिद्अत की शुरूआत कुधर्म बातनी बादशाहों ने की थी, जिन्होंने अपना नाम फ़ातिमी रख लिया था। वो भी अल्लाह के रसूल की मृत्यु के चार शताब्दियों बाद। फिर ये लोग आपकी पैदाइश का जश्न सोमवार के दिन मनाते हैं, जो आपकी मृत्यु का दिन है। दरअसल आपका जन्मोत्सव मनाना, ईसाइयों की नक्काली है, जो ईसा अलैहिस्सलाम के जन्म दिवस को उत्सव के तौर पर मनाते हैं। जबकि अल्लाह तआला ने हमें सम्पूर्ण और स्वच्छ शरीअत प्रदान करके बिद्अतों, नित-नयी चीज़ों और पथभ्रष्ट क़ौमों की मनगढ़त वस्तुओं ने बेनियाज़ कर दिया था। सारी प्रशंसाएं अल्लाह की हैं, जो सारे संसारों का पालनहार है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः जादू सीखना, सिखाना और उसपर अमल करना कुफ़्र है। क्योंकि अल्लाह तआला ने फरमाया हैः"وَاتَّبَعُوا مَا تَتْلُو الشَّيَاطِينُ عَلَى مُلْكِ سُلَيْمَانَ وَمَا كَفَرَ سُلَيْمَانُ وَلَكِنَّ الشَّيَاطِينَ كَفَرُوا يُعَلِّمُونَ النَّاسَ السِّحْرَ وَمَا أُنْزِلَ عَلَى الْمَلَكَيْنِ بِبَابِلَ هَارُوتَ وَمَارُوتَ وَمَا يُعَلِّمَانِ مِنْ أَحَدٍ حَتَّى يَقُولَا إِنَّمَا نَحْنُ فِتْنَةٌ فَلَا تَكْفُرْ فَيَتَعَلَّمُونَ مِنْهُمَا مَا يُفَرِّقُونَ بِهِ بَيْنَ الْمَرْءِ وَزَوْجِهِ وَمَا هُمْ بِضَارِّينَ بِهِ مِنْ أَحَدٍ إِلَّا بِإِذْنِ اللَّهِ وَيَتَعَلَّمُونَ مَا يَضُرُّهُمْ وَلَا يَنْفَعُهُمْ وَلَقَدْ عَلِمُوا لَمَنِ اشْتَرَاهُ مَا لَهُ فِي الْآَخِرَةِ مِنْ خَلَاقٍ" {अर्थात: और उन चीज़ों का अनुसरण करने लगे जो शैतान सुलैमान के राज्य का नाम लेकर पेश किया करते थे, हालाँकि सुलैमान ने कभी कुफ़्र नहीं किया, कुफ़्र में तो वे शैतान पड़े थे जो लोगों को जादूगरी की शिक्षा देते थे। वे पीछे पड़े उस चीज़ के जो बाबिल में दो फ़रिश्तों, हारूत तथा मारूत पर उतारी गयी थी, हालाँकि वे जब भी किसी को उसकी शिक्षा देते थे, तो पहले कह दिया करते थे कि हम केवल आज़माइश (जाँच एवं परीक्षण हेतु आए) हैं, तू कुफ़्र में न पड़। फिर भी ये लोग उनसे वही चीज़ सीखते थे, जिससे पति और पत्नि में जुदाई डाल दें। यह स्पष्ट बात थी कि अल्लह की अनुमति के बिना वे इसके द्वारा किसी को भी हानि नहीं पहुँचा सकते थे,किन्तु फिर भी वे ऐसी विधि सीखते थे जो उनके लिए लाभकारी नहीं, बल्कि हानिकारक थी और वे भली भाँति जानते थे कि जो इस चीज़ का खरीदार बना, उसके लिए आख़िरत (प्रलोक) में कोई भाग नहीं।} (सूरा अल्-बक़राः 102) एक अन्य स्थान में फरमाया हैः "ؤْمِنُونَ بِالْجِبْتِ وَالطَّاغُوتِ" {अर्थात: वे जादू और ताग़ूत को मानते हैं।} (सूरा अन्-निसाः 51)
आयत में मौजूद शब्द 'अल्-जिब्त' की व्याख्या जादू से की गयी है। इस तरह अल्लाह ने जादू और 'ताग़ूत' (वो सारी वस्तुएं जिन्हें अल्लाह को छोड़कर अथवा अल्लाह के साथ उपासना योग्य ठहरा लिया जाय) को एक साथ मिलाकर बयान किया है, यह स्पष्ट करने के लिए कि जिस प्रकार ताग़ूत को मानना कुफ़्र है, उसी प्रकार जादू करना भी कुफ़्र है। 'ताग़ूत' के इन्कार का एक आवश्यक अंग यह है कि जादू के ग़लत होने का विश्वास रखा जाय। साथ ही यह विश्वास भी रखा जाय कि जादू का विद्या अपवित्र है, दीन और दुनिया दोनों को सत्यानाश करने वाला है, जादू एवं जादूगरों से बचना तथा अलग-थलग रहना अनिवार्य है।
अल्लाह तआला ने फरमायाः"وَمِنْ شَرِّ النَّفَّاثَاتِ فِي الْعُقَدِ" {अर्थात: और गाँठों में फूँकने वालों की बुराई से तेरा शरण माँगता हूँ।} (सूरा अल्-फ़लक़ः 4) तथा अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः "اجتنبوا السبع الموبقات" अर्थात: (सात विनाशकारी वस्तुओं से बचो) तथा उनमें से एक जादू बताया। और हदीस में हैः "من عقد عقدة ثم نفث فيها فقد سحر، ومن سحر فقد أشرك" (अर्थात: जिसने कोई गाँठ लगायी, फिर उसमें फूँक मारी उसने जादू किया और जिसने जादू किया उसने शिर्क किया।) इसे नसई ने रिवायत किया है। और बज़्ज़ार ने रिवायत किया हैः"ليس منا من تطير أو تطير له أو تكهن أو تكهن له أو سحر أو سُحر له" (अर्थात: वह व्यक्ति हममें से नहीं, जिसने स्वयं पक्षी उड़ाकर शगुन मालूम किया अथवा उसके लिए पक्षी उड़ाकर शगुन मालूम किया गया, भविष्य की बात बतायी अथवा उसके लिए भविष्य की बात बतायी गयी अथवा जादू किया या उसके लिए जादू किया गया।) जादूगर की सज़ा क़त्ल है। क्योंकि उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने सभी प्रान्त के शासकों के नाम यह लिख भेजा था किः"أن اقتلوا كل سَاحر وسَاحرة" (अर्थात: हर जादूगर एवं जादूगरनी को क़त्ल कर दो।) इसे बुख़ारी ने रिवायत किया है। और जुन्दुब रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः"حد السحر ضربهُ بالسيف" (अर्थात: जादू का दण्ड तलवार से सिर उड़ा देना है।) इसे तिरमिज़ी ने रिवायत किया है। और हफ़सा रज़ियल्लाहु अन्हा ने अपनी एक दासी को क़त्ल कर दिया था, जिसने उनपर जादू किया था।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः करतब दिखाने वाले उक्त कार्य शैतान की सहायता से करते हैं। कभी-कभी जादू का प्रभाव लोगों की आँखों पर भी हो जाता है और अवास्तविक वस्तु वास्तविक नज़र आने लगती है। जैसा कि फ़िरऔन के जादूगरों ने मूसा अलैहिस्सलाम और घटना स्थल पर उपस्थित अन्य लोगों के साथ किया। पूरी घटना का ज़िक्र क़ुर्आन में है। मूसा अलैहिस्सलाम को लगने लगा था कि जादूगरों की रस्सियाँ दौड़ रही हैं, हालाँकि वो दौड़ नहीं रही थीं। अल्लाह तआला ने फरमायाः "يُخَيَّلُ إِلَيْهِ مِنْ سِحْرِهِمْ أَنَّهَا تَسْعَى" {अर्थात: उनके जादू के कारण उन्हें ये लगा कि रस्सियाँ दौड़ रही हैं।) (सूरा ताहाः 66) यदि इन करतब बाज़ों के पास आयतुल कुरसी, सूर: अल्-फ़लक़, सूर: अन्-नास, सूर:अल- फ़ातिह़ा और सूर:अल- बक़रा की आख़िरी आयतें पढ़ ली जायें, तो अल्लाह की अनुमति से जादू और करतब का प्रभाव ख़त्म हो जायेगा, इनका छल एवं धोखा सामने आ जायेगा और झूठ स्पष्ट हो जायेगा।
जबकि करामत केवल अल्लाह के नेक, एकेश्वरवाद पर प्रकट होता है और बिद्आत तथा ख़ुराफ़ात अर्थात ख़ुराफ़ात से बचने वाले बन्दों के हाथों से प्रकट नहीं होती है। दरअसल करामत मोमिन के लिए भलाई की प्राप्ति अथवा विपत्ति से बचाव का एक माध्यम है। किसी से करामत प्रकट होने का अर्थ यह नहीं है कि वह वयक्ति उन मोमिनों से उत्तम है, जिनसे करामत प्रकट नहीं हुई है। यहाँ ध्यान रहे कि करामत कोई ऐसी वस्तु नहीं है कि उसकी चर्चा की जाय, बल्कि उसे छुपाना चाहिए। साथ ही उसपर भरोसा करने और उसके द्वारा लोगों को धोखा देने से बचना चाहिए।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः जादूगर अथवा जादूगरनी के पास उनसे कुछ पूछने और दवा-दारू के लिए जाना जायज़ नहीं है। क्योंकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इससे मना किया है। इसका प्रमाण ये है कि जब अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से जादू द्वारा जादू खोलने के विषय में पूछा गया तो फरमायाः "هي من عمل الشيطان" (अर्थात: ये शैतानी कार्य है।) इस हदीस को अबू दाऊद ने रिवायत किया है। और कोई भी शैतानी कार्य न तो जायज़ है, न उससे लाभ उठाना सही है और न उससे किसी भलाई की आशा की जा सकती है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः प्रातः तथा संध्या के अज़कार (दुआओं) की पाबन्दी की जाय। विशेष रूप से इस ज़िक्र (दुआ) की पाबन्दी की जायः (بسم الله الذي لا يضر مع اسمه شيء في الأرض ولا في السماء وهو السميع العليم) (अर्थात: अल्लाह के नाम से आरंभ करता हूँ, जिसके नाम के साथ धरती एवं आकाश में कोई वस्तु हानि नहीं पहुंचा सकती। वो सब कुछ सुनने और जानने वाला है।) इसे प्रातः संध्या तीन तीन बार पढ़ा जाय। इसी प्रकार ये ज़िक्र पढ़ा जायः (أعوذ بكلمات الله التامات من شر ما خلق) अर्थात: (मैं अल्लाह के सम्पूर्ण शब्दों के शरण में आता हूँ, उसकी पैदा की हुई वस्तुओं की दुष्टता से।) तथा घर के लोगों और बाल-बच्चों की रक्षा के लिए ये दुआ पढ़ी जायः (أعيذكم بكلمات الله التامة من كل شيطان وهامة ومن كل عين لامة) (अर्थात: मैं तुम्हें अल्लाह के पूर्ण शब्दों के शरण में देता हूँ, हर शैतान तथा ज़हरीले कीड़े से और हर लगने वाली आँख ले।) जैसा कि हदीस में है। इसी तरह प्रातः व् संध्या सूरा अल्- इख़्लास, सूरा अल़-फ़लक़ और सूरा अन्-नास पढ़ना तथा रात में आयतुल कुर्सी और सूरा बक़र: की आख़िरी दो आयतें पढ़ना तथा प्रातः के समय सात खजूरें खाना जादू से बचाव में महत्वपूर्ण है।
यदि किसी पर जादू कर दिया जाय, तो जादू किये हुए व्यक्ति पर क़ुर्आन तथा सहीह हदीसों में आने वाली दुआएं पढ़ी जायें, पछना लगाया जाय, यदि जादू वाले सामान मिल जायें तो उन्हें नष्ट कर दिया जाय, अल्लाह की अनुमति से जादू खुल जायेगा और प्रभावित व्यक्ति को स्वास्थ्य प्राप्त हो जायेगा।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः उनके पास जाना, उनसे कुछ पूछना और उनकी झूठी-सच्ची बातों को सुनना हराम है। अल्बत्ता, यदि कोई दक्ष तथा इस्लाम का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति उनके झूठ को सामने लाने और उनकी मक्कारियों को उजागर करने के लिए ऐसा करने चाहे, तो उसे इसकी अनुमति है। जबकि साधरण सीधे-सादे लोगों के लिए अनिवार्य है कि प्रत्येक परोक्ष का दावा करने वाले व्यक्ति उससे सावधान रहें
और उसकी शठता से बचे। बहुत ही नाकाम है वो व्यक्ति, जो उनकी गढ़ी हुई असत्य बातों और अटकलपच्चुओं पर विश्वास करे। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः"من أتى عرافاً أو كاهناً فصدقه بما يقول فقد كفر بما أنزل على محمد -صلى الله عليه وسلم" (अर्थात: जो किसी ग़ैब (परोक्ष) की बात बताने वाले अथवा भविष्यवाणी करने वाले के पास जाये और उसकी बात को सच माने, उसने मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर औतरित शरीअत का कुफ़्र (इंकार) किया।) इसे अहलुस सुनन ने रिवायत किया है। आपने यह भी फरमायाः"من أتى عرافاً فسأله عن شيء لم تقبل له صلاةٌ أربعين ليلة" (अर्थात: जो किसी ग़ैब (परोक्ष) की बात बताने वाले के पास जाये और उससे कोई बात पूछे तो उसकी चालीस दिनों की नमाज़ स्वीकार नहीं होगी।) इस हदीस को मुस्लिम ने रिवायत किया है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः ये अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की ओर मन्सूब एक झूठी हदीस है। भला ये कैसे संभव है कि आप जादू से रोकें और उसे सीखने का आह्वान करें?
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम। चूँकि हमारे नबी मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम समस्त नबियों से उत्तम थे, इसलिए आपके साथी भी तमाम नबियों के साथियों से उत्तम होंगे। फिर उनमें सबसे उत्तम अबू बक्र रज़ियल्लाहु अन्हु थे। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः "ا طلعت الشمس ولا غربت بعد النبيين والمرسلين على أفضل من أبي بكر" (अर्थात: नबियों और रसूलों के पश्चात सुर्य किसी ऐसे व्यक्ति पर उदयऔर लुप्त नहीं, जो अबू बक्र से उत्तमतर हो।) फिर उमर, फिर उस्मान, फिर अली रज़ियल्लाहु अन्हुम, फिर जन्नत की शुभ्सूचना पाने वाले बाक़ी दस सह़ाबा। सहाबा किराम आपस में एक-दूसरे से प्यार करते थे। यही कारण है कि अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने अपने बेटों के नाम उनसे पहले के तीन ख़लीफ़ों के नाम पर रखे। चुनाँचे उनके कुछ बेटों के नाम अबू बक्र, उमर और उस्मान थे। वो व्यक्ति झूठा है जिसने कहा किः आम सहाबा अह्ले बैत से मुहब्बत नहीं रखते थे और अह्ले बैत आम सहाबा से मुहब्बत नहीं रखते थे। ये दरअसल अह्ले बैत और आम सहाबा के दुश्मनों का मिथ्यारोप है। अल्लाह उन सबसे प्रसन्न हो।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः समस्त सहाबा से मुहब्बत रखना, उनका सम्मान करना और उनसे प्रसन्न रहना अनिवार्य है। क्योंकि अल्लाह तआला ने बिना भेदभाव के तमाम सहाबा से अपनी प्रसन्नता की घोंष्णा की है। जैसा कि उसके इस कथन में हैः "وَالسَّابِقُونَ الْأَوَّلُونَ مِنَ الْمُهَاجِرِينَ وَالْأَنْصَارِ وَالَّذِينَ اتَّبَعُوهُمْ بِإِحْسَانٍ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُمْ وَرَضُوا عَنْهُ وَأَعَدَّ لَهُمْ جَنَّاتٍ تَجْرِي تَحْتَهَا الْأَنْهَارُ خَالِدِينَ فِيهَا أَبَدًا ذَلِكَ الْفَوْزُ الْعَظِيمُ" {अर्थात: वे घर-बार छोड़ने वाले (मुहाजिर) और उनके सहायक (अन्सार) जो सबसे पहले ईमान के आमंत्रण को स्वीकार करने में अग्रसर रहे, और वे भी जो बाद में सत्यनिष्ठा के साथ पीछे आये, अल्लाह उनसे प्रसन्न हुआ और वे अल्लाह से प्रसन्न हुए, अल्लाह ने उनके लिए ऐसे बाग़ तैयार कर रखे हैं, जिनके नीचे नहरें बहती होंगी और वे उनमें सदैव रहेंगे, यही उच्च श्रेणी की सफलता है।} (सूरा अत्-तौबाः 100) एक और स्थान पर फरमायाः" لَقَدْ رَضِيَ اللَّهُ عَنِ الْمُؤْمِنِينَ إِذْ يُبَايِعُونَكَ تَحْتَ الشَّجَرَةِ" {अर्थात: अल्लाह ईमान वालों से खुश हो गया, जब वे वृक्ष के नीचे आपसे बैअत कर रहे थे।} (सूरा अल्-फ़त्ह़ः 18) तथा सहाबा के बारे में फरमायाः"وَكُلًّا وَعَدَ اللَّهُ الْحُسْنَى" अर्थात: {अल्लाह ने हरेक से अच्छे वादे किये हैं।] (सूरा अल्-ह़दीदः 10) इसी प्रकार मुसलमानों की माओं (अल्लाह के रसूल की पत्नियों) से मुहब्बत रखना और उनका सम्मान करना अनिवार्य है तथा उनके बारे में ज़बान दराज़ी जायज़ नहीं है, क्योंकि ये महा पापों में से है। अल्लाह तआला ने फरमायाः"وَأَزْوَاجُهُ أُمَّهَاتُهُمْ" {अर्थात: और उसकी पत्नियाँ उनकी माताएं हैं।} (सूरा अल्-अह़ज़ाबः 6) अतः नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सारी पत्नियाँ मोमिनों की माताएं हैं। क्योंकि अल्लाह ने माँ घोषित करते समय उनमें से किसी को अलग नहीं किया है। तथा अबू सईद ख़ुदरी रज़ियल्लाहु अन्हु की एक ह़दीस में है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः"لا تسبوا أصحابي فلو أنَّ أحدَكم أنفق مثل أُحدٍ ذهباً، ما بلغ مُدَّ أحدهم، ولا نصيفه" (अर्थात: तुम मेरे सहाबा को गाली न देना, क्योंकि तुममें से कोई यदि उह़ुद पर्वत के बराबर सोना दान कर दे, तो उनके एक अथवा आधे मुद्द के बराबर भी नहीं हो सकता। (एक मुद्द ६०० ग्राम का होता है)) इस हदीस को मुस्लिम ने रिवायत किया है।
उनके इस सम्मान पर कोई आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए। क्योंकि वे ऐसे लोग थे, जिन्होंने अल्लाह के धर्म की रक्षा के लिए जान तथा माल सब कुछ न्योछावर कर दिया, अल्लाह के रसूल की मुख़ालफ़त करने वाले निकटवर्तियों और दूर के लोगों से युद्ध की, घर-परिवार छोड़कर अल्लाह के मार्ग में हिजरत की। वही, मुसलमानों को प्रलय दीवस तक मिलने वाली हर भलाई और अच्छाई के कारण हैं। वे अन्तिम दिन तक मुसलमानों के तमाम सत्कर्मों के सवाब के अधिकारी हैं। न पिछली किसी समुदाय में उन जैसे लोग पैदा हुए हैं, न आने वाली क़ौमों में होंगे। अल्लाह उनसे प्रसन्न हो और उन्हें प्रसन्न रखे। उनके भाग में विनाश तथा तबाही है, जो उनसे शत्रुभाव रखते हैं, उन्हें बुरा कहते हैं, उनका चरित्र हनन करते हैं और उनमें से किसी पर दोषारोपन करते हैं।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः ऐसा व्यक्ति अल्लाह की कृपा से दूर हो जाता है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः"من سب أصحابي فعليه لعنة الله والملائكة والناس أجمعين" (अर्थात: जिसने मेरे सहाबा को गाली दी, उसपर अल्लाह, फरिश्तों और तमाम लोगों की लानत अर्थात दुतकार है।) इस हदीस को तबरानी ने रिवायत किया है। किसी सहाबी अथवा उम्मुल मोमिनीन को बुरा भला कहने वाले का घोर विरोध एवं खण्डन होना चाहिए। जबकि प्रशासन तथा विशेष प्राधिकरणों को चाहिए कि इस प्रकार के कुचरित्र लोगों को कठोर दण्ड दें।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः ये मानना जायज़ नहीं है कि सभी धर्म एक हैं। ये अति दर्जे का कुफ़्र है। क्योंकि सभी धर्मों को एक मानने का अर्थ है, अल्लाह को झुठलाना, उसके आदेश का उल्लंघन करना और कुफ़्र तथा ईमान एवं सत्य तथा असत्य को बराबर क़रार देना। एक बुद्धिमान व्यक्ति को इस बात के ग़लत होने पर कदापि संदेह नहीं हो सकता कि अल्लाह का दीन और 'ताग़ूतों' का धर्म समान है। भला एकेश्वरवाद तथा अनेकेश्वरवाद और सत्य तथा असत्य एक साथ एकत्रित कैसे हो सकते हैं? जबकि अल्लाह का दीन सत्य है और उसके सिवा अन्य धर्म असत्य हैं। अल्लाह ने अपने धर्म को सम्पूर्ण कर दिया है और अपनी नेमत पूरी कर दी है। अल्लाह का फरमान हैः "الْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ دِينَكُمْ وَأَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ الْإِسْلَامَ دِينًا" {अर्थात: आज, मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारे धर्म को सम्पन्न कर दिया, तुम पर अपनी नेमत पूरी कर दी और तुम्हारे लिए इस्लाम को धर्म के तौर पर पसन्द कर लिया।} (सूरा अल्-माइदाः 3) ऐसे में न उसमें कोई कमी-बेशी उचित है, न किसी कुफ़्र पर आधारित धर्म को उसके समान क़रार देना अथवा उसके साथ इकट्ठा सही है। सच ये है कि इस तरह का अक़ीदा कोई समझदार मुसलमान रख नहीं सकता और न इसकी ओर कोई ऐसा व्यक्ति प्रेरित हो सकता है, जिसके अन्दर किंचित परिमाण अ़क्ल और ईमान हो। अल्लाह का फरमान हैः"وَمَنْ يَبْتَغِ غَيْرَ الْإِسْلَامِ دِينًا فَلَنْ يُقْبَلَ مِنْهُ وَهُوَ فِي الْآَخِرَةِ مِنَ الْخَاسِرِينَ" (अर्थात: जो इस्लाम के सिवा किसी अन्य धर्म को ढूंढेगा, उसकी ओर से उसे स्वीकार नहीं किया जायेगा और वो प्रलोक में हानि उठाने वालों में होगा।} (सूरा आले इमरानः 85) और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः "والذي نفس محمد بيده لا يسمع بي أحدٌ من هذه الأمّة يهوديٌّ ولا نصرانيٌّ, ثم يموت ولم يؤمن بالذي أُرسلت به إلاّ كان من أصحاب النار" (अर्थात: उस हस्ती की सौगंध! जिसके हाथ में मुह़म्मद की प्राण है, इस उम्मत का जो व्यक्ति भी मेरे बारे में सुनेगा, यहूदी हो अथवा ईसाई, फिर मेरे लाये हुए धर्म पर ईमान लाये बिना मर जायेगा, वो नरक जाने वालों में से होगा।) इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।
उत्तर/ तो आप कह दीजिएः ईमान से व्यक्ति, समाज और समुदाय को संसार एवं प्रलोक की सारी भलाइयाँ प्राप्त होंगी। आकाश और धरती की बरकतें उनपर खोल दी जायेंगी। अल्लाह अल्लाह तआला ने फरमायाः"وَلَوْ أَنَّ أَهْلَ الْقُرَى آَمَنُوا وَاتَّقَوْا لَفَتَحْنَا عَلَيْهِمْ بَرَكَاتٍ مِنَ السَّمَاءِ وَالْأَرْضِ وَلَكِنْ كَذَّبُوا فَأَخَذْنَاهُمْ بِمَا كَانُوا يَكْسِبُونَ" {अर्थात: यदि बस्तियों वाले ईमान लाते तथा अल्लाह से डरते तो हम उनपर आकाश और धरती की बरकतें खोल देते। परन्तु उन्होंने झुठलाया तो हमने उन्हें उनके करतूतों के कारण पकड़ लिया।} (सूरा अल्-आराफ़ः 96)
इसी प्रकार ईमान से मन को शान्ति मिलती है, दिल को सुकून मिलता है और हृदय को आनन्द मिलता है। अल्लाह तआला ने फरमायाः"الَّذِينَ آَمَنُوا وَتَطْمَئِنُّ قُلُوبُهُمْ بِذِكْرِ اللَّهِ أَلَا بِذِكْرِ اللَّهِ تَطْمَئِنُّ الْقُلُوبُ" {अर्थात: जो लोग ईमान लाये, उनके दिलों को अल्लाह की याद से शान्ति प्राप्त होती है, याद रखो, अल्लाह की याद ही ऐसी चीज़ है, जिससे दिलों को शान्ति प्राप्त होती है।} (सूरा अर्-रअ्दः 28) सत्यवादी मोमिन, जो तौहीद पर स्थिर हो और नबी की सुन्नत का अनुसरण करता हो, पवित्र जीवन व्यतीत करता है। उसका हृदय प्रसन्न और आत्मा तृप्त होती है। परेशानी उसके निकट नहीं आती, दुख उसे छूकर नहीं गुज़रती, शैतान की भ्रमित करने, डराने और शोकातुर करने की कोशिशें सफल नहीं हो पातीं। वो इस लोक मेें कभी निराशा का शिकार नहीं होता और परलोक में जन्नत की नेमतों का अनन्द उठायेगा। अल्लाह तआला ने फरमायाः"مَنْ عَمِلَ صَالِحًا مِنْ ذَكَرٍ أَوْ أُنْثَى وَهُوَ مُؤْمِنٌ فَلَنُحْيِيَنَّهُ حَيَاةً طَيِّبَةً وَلَنَجْزِيَنَّهُمْ أَجْرَهُمْ بِأَحْسَنِ مَا كَانُوا يَعْمَلُونَ" {अर्थात: जो भी सत्कर्म करेगा, नर हो अथवा नारी, शर्त ये हि कि वो मोमिन हो, हम उसे पवित्र जीवन प्रदान करेंगे और उनके सत्कर्मों का उत्तम बदला प्रदान करेंगे।} (सूरा अन-नह़्लः 97)
मेरे मुसलमान भाइयो और बहनो! इस बात का प्रयास करें कि आप भी उक्त शुभ सूचना प्राप्त करने वालों और अल्लाह के इस वचन के अंतर्गत् आने वालों में सम्मिलित हो जायें।
मेरे सम्मानित भाई एवं बहन !
उस अल्लाह की प्रशंसा करता हूं, जिसने हमारे लिए दीन (धर्म) को पूर्ण किया, हमपर अपनी कृपा और अनुग्रह को पूरा किया और हमें इसलाम धर्म प्रदान किया, जो सत्य, तौह़ीद (एकिश्वर्वाद) और इसलोक तथा परलोक की भलाई का धर्म है।
प्रिय बन्धु, सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य यह है कि क़ुर्आन तथा सुन्नत आधारित एवं सहाबा किराम की समझ के अनुसार शरीअत का ज्ञान अर्जन किया जाय। ताकि समझ-बूझ के साथ अल्लाह की वंदना करने का सौभाग्य प्राप्त हो तथा संदेहों एवं सत्य से हटाने वाले फित्नों से बचाव संभव हो सके। हर व्यक्ति, चाहे उसका पद, कितना ही उच्च क्यों ने हो, ज्ञानार्जन के आदेश में सम्मिलित है और उसका मुहताज है।
दूसरों को जाने दीजिए, स्वयं नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भी उनके रब ने ज्ञानार्जन का आदेश दिया था। अल्लाह तआला ने फरमायाः "فَاعْلَمْ أَنَّهُ لَا إِلَهَ إِلَّا اللَّهُ" {अर्थात: आप जान लीजिए कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं है।} (सूरा मुह़म्मदः 19) आपको आदेश दिया गया था कि अपने रब से अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्ति की दुआ करें। अल्लाह तआला ने फरमायाः"وَقُلْ رَبِّ زِدْنِي عِلْمًا" {अर्थात: तथा आप कह दीजिएः हे मेरे रब! मेरे ज्ञान में वृद्धि कर।} (सूरा ताहाः 114) इसलिए, अपने नबी और इमाम, मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के तरीक़े पर संतुष्ट रहिए और लोक-परलोक में भलाई तथा उच्च स्थान की शुभ सूचना स्वीकार कीजिए। अल्लाह तआला ने फरमायाः"يَرْفَعِ اللَّهُ الَّذِينَ آَمَنُوا مِنْكُمْ وَالَّذِينَ أُوتُوا الْعِلْمَ دَرَجَاتٍ" {अर्थात: अल्लाह तुममें से उन लोगों को उच्च श्रेणियाँ प्रदान करता है, जो ईमान लाये तथा ज्ञान दिये गये।} (सूरा अल्-मुजादलाः 11)
ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात उसपर अमल कीजिए और भलाई तथा ज्ञान को फैलाने का प्रयास कीजिए, ताकि सत्किर्मियों और समाज-सुधारकों की श्रेणी में शामिल हो सकें और आह्वान किये गये लोगों और मानने वालों का सवाब प्राप्त कर सकें। सच ये है कि फ़र्ज़ कामों की अदायगी के पश्चात कोई कर्म ज्ञान को फैलाने तथा भलाई की ओर बुलाने से उत्तम नहीं है।
लोगों को सत्य की ओर बुलाने वालों के सम्मान एवं प्रतिष्ठा के क्या कहने? वही अल्लाह की अनुमति से लोगों को अज्ञानता, पथभ्रष्टता और अन्धविश्वास के अन्धेरों से मुक्ति दिलाकर शान्ति, प्रकाश, मार्गदर्शन तथा जन्नत के मार्ग पर लगाने वाले हैं। तथा सारी प्रशंसाएं अल्लाह के लिए हैं।