Description
मानवाधिकार की आधारशिला: इस्लाम एक संपूर्ण व्यापक धर्म है जो मनुष्य के सभी धार्मिक और सांसारिक हितों की रक्षा करता है और उसके लिए मानक स्थापित करता है। चुनांचे उसने मानव जाति के सभी श्रेणियों के लिए अधिकार निर्धारित किए हैं, जिनसे अभी तक मानवता अपने इतिहास में अनभिज्ञ थी। जब अल्लाह सर्वशक्तिमान ने इस्लाम धर्म को पूरा कर देने, अपने अनुग्रह को संपन्न कर देने और मानवता के लिए इस्लाम को धर्म के रूप मे पसंद कर लेने की घोषणा कर दी, तो पैगंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने हज्ज के अवसर पर एक ऐतिहासिक भाषण दिया और उसमें लोगों के अधिकारों का उल्लेख किया, जो मानव अधिकारों के लिए नींव रखने के रूप में देखा जाता है। प्रस्तुत लेख में इसी का वर्णन है।
मानवाधिकार की आधारशिला
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साइट इस्लाम धर्म
संपादनः अताउर्रहमान ज़ियाउल्लाह
2014 - 1435
﴿الإسلام يضع حجر الأساس لحقوق الإنسان ﴾
« باللغة الهندية »
موقع دين الإسلام
مراجعة: عطاء الرحمن ضياء الله
2014 - 1435
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बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
मैं अति मेहरबान और दयालु अल्लाह के नाम से आरम्भ करता हूँ।
إن الحمد لله نحمده ونستعينه ونستغفره، ونعوذ بالله من شرور أنفسنا، وسيئات أعمالنا، من يهده الله فلا مضل له، ومن يضلل فلا هادي له، وبعد:
हर प्रकार की हम्द व सना (प्रशंसा और गुणगान) केवल अल्लाह के लिए योग्य है, हम उसी की प्रशंसा करते हैं, उसी से मदद मांगते और उसी से क्षमा याचना करते हैं, तथा हम अपने नफ्स की बुराई और अपने बुरे कामों से अल्लाह की पनाह में आते हैं, जिसे अल्लाह तआला हिदायत प्रदान कर दे उसे कोई पथभ्रष्ट (गुमराह) करने वाला नहीं, और जिसे गुमराह कर दे उसे कोई हिदायत देने वाला नहीं। हम्द व सना के बाद :
मानवाधिकार की आधारशिला
पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का विदायी अभिभाषण इस्लाम में मानवाधिकार
पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ईश्वर की ओर से, सत्यधर्म को उसके पूर्ण और अन्तिम रूप में स्थापित करने के जिस मिशन पर नियुक्त किए गए थे वह 21 वर्ष (23 चांद्र वर्ष) में पूरा हो गया और ईशवाणी अवतरित हुई :
''...आज मैंने तुम्हारे दीन (इस्लामी जीवन व्यवस्था की पूर्ण रूपरेखा) को तुम्हारे लिए पूर्ण कर दिया है और तुम पर अपनी नेमत पूरी कर दी और मैंने तुम्हारे लिए इस्लाम को तुम्हारे दीन की हैसियत से क़बूल कर लिया है...।'' (कु़रआन, 5:3)
आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने हज के दौरान 'अरफ़ात' के मैदान में 9 मार्च 632 ई॰ को एक भाषण दिया जो मानव-इतिहास के सफ़र में एक 'मील का पत्थर' (Milestone) बन गया। इसे निःसन्देह 'मानवाधिकार की आधारशिला' का नाम दिया जा सकता है। उस समय इस्लाम के लगभग सवा लाख अनुगामी लोग वहाँ उपस्थित थे। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर ऐसे लोगों को नियुक्त कर दिया गया था जो आपके वचन-वाक्यों को सुनकर ऊँची आवाज़ में शब्दतः दोहरा देते; इस प्रकार सारे श्रोताओं ने आपका पूरा भाषण सुना।
भाषण
आप ने पहले ईश्वर की प्रशंसा, स्तुति और गुणगान किया, मन-मस्तिष्क की बुरी उकसाहटों और बुरे कामों से अल्लाह की शरण चाही; इस्लाम के मूलाधार 'विशुद्ध एकेश्वरवाद' की गवाही दी और फ़रमाया :
● ऐ लोगो! अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है, वह एक ही है, कोई उसका साझी नहीं है। अल्लाह ने अपना वचन पूरा किया, उसने अपने बन्दे (रसूल) की सहायता की और अकेला ही अधर्म की सारी शक्ति को पराजित किया।
● लोगो मेरी बात सुनो, मैं नहीं समझता कि अब कभी हम इस तरह एकत्र हो सकेंगे और संभवतः इस वर्ष के बाद मैं हज न कर सकूँगा।
● लोगो, अल्लाह फ़रमाता है कि, इन्सानो, हम ने तुम सब को एक ही पुरुष व स्त्री से पैदा किया है और तुम्हें गिरोहों और क़बीलों में बाँट दिया गया कि तुम अलग-अलग पहचाने जा सको। अल्लाह की दृष्टि में तुम में सबसे अच्छा और आदर वाला वह है जो अल्लाह से ज़्यादा डरने वाला है। किसी अरबी को किसी ग़ैर-अरबी पर, किसी ग़ैर-अरबी को किसी अरबी पर कोई प्रतिष्ठा हासिल नहीं है। न काला गोरे से उत्तम है न गोरा काले से। हाँ आदर और प्रतिष्ठा का कोई मापदंड है तो वह ईशपरायणता है।
● सारे मनुष्य आदम की संतान हैं और आदम मिट्टी से बनाए गए। अब प्रतिष्ठा एवं उत्तमता के सारे दावे, ख़ून एवं माल की सारी मांगें और शत्रुता के सारे बदले मेरे पाँव तले रौंदे जा चुके हैं। बस, काबा का प्रबंध और हाजियों को पानी पिलाने की सेवा का क्रम जारी रहेगा। कु़रैश के लोगो! ऐसा न हो कि अल्लाह के समक्ष तुम इस तरह आओ कि तुम्हारी गरदनों पर तो दुनिया का बोझ हो और दूसरे लोग परलोक का सामान लेकर आएँ, और अगर ऐसा हुआ तो मैं अल्लाह के सामने तुम्हारे कुछ काम न आ सकूंगा।
● कु़रैश के लोगो, अल्लाह ने तुम्हारे झूठे घमंड को ख़त्म कर डाला, और बाप-दादा के कारनामों पर तुम्हारे गर्व की कोई गुंजाइश नहीं। लोगो, तुम्हारे ख़ून, माल व इज़्ज़त एक-दूसरे पर हराम कर दी गईं हमेशा के लिए। इन चीज़ों का महत्व ऐसा ही है जैसा तुम्हारे इस दिन का और इस मुबारक महीने का, विशेषतः इस शहर में। तुम सब अल्लाह के सामने जाओगे और वह तुम से तुम्हारे कर्मों के बारे में पूछेगा।
● देखो, कहीं मेरे बाद भटक न जाना कि आपस में एक-दूसरे का ख़ून बहाने लगो। अगर किसी के पास धरोहर (अमानत) रखी जाए तो वह इस बात का पाबन्द है कि अमानत रखवाने वाले को अमानत पहुँचा दे। लोगो, हर मुसलमान दूसरे मुसलमान का भाई है और सारे मुसलमान आपस में भाई-भाई है। अपने गु़लामों का ख़्याल रखो, हां गु़लामों का ख़्याल रखो। इन्हें वही खिलाओ जो ख़ुद खाते हो, वैसा ही पहनाओ जैसा तुम पहनते हो।
● जाहिलियत (अज्ञान) का सब कुछ मैंने अपने पैरों से कुचल दिया। जाहिलियत के समय के ख़ून के सारे बदले ख़त्म कर दिये गए। पहला बदला जिसे मैं क्षमा करता हूं मेरे अपने परिवार का है। रबीअ़-बिन-हारिस के दूध-पीते बेटे का ख़ून जिसे बनू-हुज़ैल ने मार डाला था, मैं क्षमा करता हूं। जाहिलियत के समय के ब्याज (सूद) अब कोई महत्व नहीं रखते, पहला सूद, जिसे मैं निरस्त कराता हूं, अब्बास-बिन-अब्दुल मुत्तलिब के परिवार का सूद है।
● लोगो, अल्लाह ने हर हक़दार को उसका हक़ दे दिया, अब कोई किसी उत्तराधिकारी (वारिस) के हक़ में वसीयत न करे।
● बच्चा उसी के तरफ़ मन्सूब किया जाएगा जिसके बिस्तर पर पैदा हुआ। जिस पर हरामकारी साबित हो उसकी सज़ा पत्थर है, सारे कर्मों का हिसाब-किताब अल्लाह के यहाँ होगा।
● जो कोई अपना वंश (नसब) परिवर्तन करे या कोई गु़लाम अपने मालिक के बदले किसी और को मालिक ज़ाहिर करे उस पर ख़ुदा की फिटकार।
● क़र्ज़ अदा कर दिया जाए, माँगी हुई वस्तु वापस करनी चाहिए, उपहार का बदला देना चाहिए और जो कोई किसी की ज़मानत ले वह दंड (तावान) अदा करे।
● किसी के लिए यह जायज़ नहीं कि वह अपने भाई से कुछ ले, सिवा उसके जिस पर उस का भाई राज़ी हो और ख़ुशी-ख़ुशी दे। स्वयं पर एवं दूसरों पर अत्याचार न करो।
● औरत के लिए यह जायज़ नहीं है कि वह अपने पति का माल उसकी अनुमति के बिना किसी को दे।
● देखो, तुम्हारे ऊपर तुम्हारी पत्नियों के कुछ अधिकार हैं। इसी तरह, उन पर तुम्हारे कुछ अधिकार हैं। औरतों पर तुम्हारा यह अधिकार है कि वे अपने पास किसी ऐसे व्यक्ति को न बुलाएँ, जिसे तुम पसन्द नहीं करते और कोई ख़्यानत (विश्वासघात) न करें, और अगर वह ऐसा करें तो अल्लाह की ओर से तुम्हें इसकी अनुमति है कि उन्हें हल्का शारीरिक दंड दो, और वह बाज़ आ जाएँ तो उन्हें अच्छी तरह खिलाओ, पहनाओ।
● औरतों से सद्व्यवहार करो क्योंकि वह तुम्हारी पाबन्द हैं और स्वयं वह अपने लिए कुछ नहीं कर सकतीं। अतः इनके बारे में अल्लाह से डरो कि तुम ने इन्हें अल्लाह के नाम पर हासिल किया है और उसी के नाम पर वह तुम्हारे लिए हलाल हुईं। लोगो, मेरी बात समझ लो, मैंने तुम्हें अल्लाह का संदेश पहुँचा दिया।
● मैं तुम्हारे बीच एक ऐसी चीज़ छोड़ जाता हूं कि तुम कभी नहीं भटकोगे, यदि उस पर क़ायम रहे, और वह अल्लाह की किताब (क़ुरआन) है और हाँ देखो, धर्म के (दीनी) मामलात में सीमा के आगे न बढ़ना कि तुम से पहले के लोग इन्हीं कारणों से नष्ट कर दिए गए।
● शैतान को अब इस बात की कोई उम्मीद नहीं रह गई है कि अब उसकी इस शहर में इबादत की जाएगी किन्तु यह संभव है कि ऐसे मामलात में जिन्हें तुम कम महत्व देते हो, उसकी बात मान ली जाए और वह इस पर राज़ी है, इसलिए तुम उससे अपने धर्म (दीन) व विश्वास (ईमान) की रक्षा करना।
● लोगो, अपने रब की इबादत करो, पाँच वक़्त की नमाज़ अदा करो, पूरे महीने के रोज़े रखो, अपने धन की ज़कात ख़ुशदिली के साथ देते रहो। अल्लाह के घर (काबा) का हज करो और अपने सरदार का आज्ञापालन करो तो अपने रब की जन्नत में दाख़िल हो जाओगे।
● अब अपराधी स्वयं अपने अपराध का ज़िम्मेदार होगा और अब न बाप के बदले बेटा पकड़ा जाएगा न बेटे का बदला बाप से लिया जाएगा ।
● सुनो, जो लोग यहाँ मौजूद हैं, उन्हें चाहिए कि ये आदेश और ये बातें उन लोगों को बताएँ जो यहाँ नहीं हैं, हो सकता है, कि कोई अनुपस्थित व्यक्ति तुम से ज़्यादा इन बातों को समझने और सुरक्षित रखने वाला हो। और लोगो, तुम से मेरे बारे में अल्लाह के यहाँ पूछा जाएगा, बताओ तुम क्या जवाब दोगे? लोगों ने जवाब दिया कि हम इस बात की गवाही देंगे कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अमानत (दीन का संदेश) पहुँचा दिया और रिसालत (ईशदूतत्व) का हक़ अदा कर दिया, और हमें सत्य और भलाई का रास्ता दिखा दिया।
यह सुनकर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपनी शहादत की उँगुली आसमान की ओर उठाई और लोगों की ओर इशारा करते हुए तीन बार फ़रमाया, ऐ अल्लाह, गवाह रहना! ऐ अल्लाह, गवाह रहना! ऐ अल्लाह, गवाह रहना।
इस्लाम में मानव-अधिकारों की अस्ल हैसियत
जब हम इस्लाम में मानवाधिकार की बात करते हैं तो इसके मायने अस्ल में यह होते हैं कि ये अधिकार ख़ुदा के दिए हुए हैं। बादशाहों और क़ानून बनाने वाले संस्थानों के दिए हुए अधिकार जिस तरह दिए जाते हैं, उसी तरह जब वे चाहें वापस भी लिए जा सकते हैं। डिक्टेटरों के तस्लीम किए हुए अधिकारों का भी हाल यह है कि जब वे चाहें प्रदान करें, जब चाहें वापस ले लें, और जब चाहें खुल्लम-खुल्ला उनके ख़िलाफ़ अमल करें। लेकिन इस्लाम में इन्सान के जो अधिकार हैं, वे ख़ुदा के दिए हुए हैं। दुनिया की कोई विधानसभा और दुनिया की कोई हुकूमत उनके अन्दर तब्दीली करने का अधिकार ही नहीं रखती है। उनको वापस लेने या ख़त्म कर देने का कोई हक़ किसी को हासिल नहीं है। ये दिखावे के बुनियादी हुक़ूक़ भी नहीं हैं, जो काग़ज़ पर दिए जाएँ और ज़मीन पर छीन लिए जाएँ। इनकी हैसियत दार्शनिक विचारों की भी नहीं है, जिनके पीछे कोई लागू करने वाली ताक़त (Authority) नहीं होती। संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर, एलानात और क़रारदादों को भी उनके मुक़ाबले में नहीं लाया जा सकता। क्योंकि उन पर अमल करना किसी के लिए भी ज़रूरी नहीं है। इस्लाम के दिए हुए अधिकार इस्लाम धर्म का एक हिस्सा हैं। हर मुसलमान इन्हें हक़ तस्लीम करेगा और हर उस हुकूमत को इन्हें तस्लीम करना और लागू करना पड़ेगा जो इस्लाम की नामलेवा हो और जिसके चलाने वालों का यह दावा हो कि ''हम मुसलमान'' हैं। अगर वह ऐसा नहीं करते और उन अधिकारों को जो ख़ुदा ने दिए हैं, छीनते हैं, या उनमें तब्दीली करते हैं या अमलन उन्हें रौंदते हैं तो उनके बारे में कु़रआन का फै़सला यह है कि ''जो लोग अल्लाह के हुक्म के ख़िलाफ़ फैसला करें वही काफ़िर हैं।'' (5:44)। इसके बाद दूसरी जगह फ़रमाया गया ''वही ज़ालिम हैं।'' (5:45)। और तीसरी आयत में फ़रमाया ''वही फ़ासिक़ हैं।'' (5:47)। दूसरे शब्दों में इन आयतों का मतलब यह है कि अगर वे ख़ुद अपने विचारों और अपने फै़सलों को सही-सच्चा समझते हों और ख़ुदा के दिए हुए हुक्मों को झूठा क़रार देते हों तो वे काफ़िर हैं। और अगर वह सच तो ख़ुदाई हुक्मों ही को समझते हों, मगर अपने ख़ुदा की दी हुई चीज़ को जान-बूझकर रद्द करते और अपने फैसले उसके ख़िलाफ़ लागू करते हों तो वे फ़ासिक़ और ज़ालिम हैं। फ़ासिक़ उसको कहते हैं जो फ़रमांबरदारी से निकल जाए, और ज़ालिम वह है जो सत्य व न्याय के ख़िलाफ़ काम करे। अतः इनका मामला दो सूरतों से ख़ाली नहीं है, या वे कुफ़्र में फंसे हैं, या फिर वे फ़िस्क़ और जु़ल्म में फंसे हैं। बहरहाल जो हुक़ूक़ अल्लाह ने इन्सान को दिए हैं, वे हमेशा रहने वाले हैं, अटल हैं। उनके अन्दर किसी तब्दीली या कमीबेशी की गुंजाइश नहीं है।
ये दो बातें अच्छी तरह दिमाग़ में रखकर अब देखिए कि इस्लाम मानव-अधिकारों की क्या परिकल्पना पेश करता है।